उम्मीद करना गलत नहीं, लेकिन वास्तविकता को भी स्वीकारें

उम्मीद करना आपके सकारात्मक पहलू को दर्शाता है, लेकिन क्या रिश्तों के समीकरण में अपेक्षा का सूत्र इस्तेमाल होता है? आइए जानते हैं…

हाल ही में मैंने ब्यूटी एंड द बीस्ट नामक फिल्म देखी। इस फिल्म की मुख्यपात्र, बेले, विलेन्यूवे में रहती थी। वह एक ऐसे गांव में थी, जहां सुविधाओं का आभाव रहता है। वह हमेशा बड़े महल में रहना चाहती थी। एक दिन एक बीस्ट उसके पिता को अपने महल में उठा ले जाता है। फिर बेले अपने पिता को बीस्ट की कैद से छुड़ाने के लिए महल में जाती है, जिसके लिए उसे अपना घर और गांव छोड़ना पड़ता है। वह महल की कैद से अपने पिता को छुड़ा लेती है, लेकिन बीस्ट उसके सामने एक शर्त रख देता है। शर्त है कि अपने पिता की जगह बेले को एक कैदी बनकर उस महल में रहना होगा। बेले बीस्ट की शर्त को मान जाती है और फिर उसे बीस्ट के आलीशान महल में रहने का मौका मिलता है। लेकिन वहां पर आज़ादी नहीं थी। वह उस महल में घूम तो सकती है, लेकिन अपने गांव और अपने पिता के पास वापस नहीं लौट सकती है। इस तरह से बेले को उस महल में रहने की आदत डालने में बहुत समय लगा। ऐसा होने का एक कारण यह भी था कि वह अपने गांव में रह कर जो चीज़ें करती थी, वो महल में नहीं कर सकती थी। लेकिन, उसने इन सब चीजों की उम्मीद (Hope) पहले से ही की हुई थी।

अब आप सोच रहे होंगे कि मैंने क्यों इस फिल्म का जिक्र किया है। मैं यकीन से कह सकती हूं कि बेले की तरह हर व्यक्ति अपने जीवन में उम्मीदों के अनुसार ही काम करता है। सभी सपने देखते हैं, कल्पना करते हैं और उम्मीद (Ummid) करते हैं। लेकिन, जीवन में सब कुछ हमारे सोच, कल्पना और उम्मीद के अनुसार नहीं होता है। फिर हम कहते हैं कि ये चीज़ मेरी उम्मीद पर खरी नहीं उतरी। अर्थशास्त्री और इंटरनेशनल डेवलपमेंट एक्सपर्ट नैट वेयर ने टॉक व्हाई वी आर अनहैप्पी एक्सपेक्टेशन गैप नामक एक टेडएक्स शो में बताया था कि, “उम्मीद एक ऐसी चीज़ है, जो इंसान को सबसे ज्यादा दुख पहुंचा सकती है। क्योंकि जब हम किसी भी चीज़ की कल्पना कर लेते हैं और वह वास्तविकता में उससे विपरीत होती है, तब हमें तकलीफ होती है।” अगर इस बात को सीधे शब्दों में कहें, तो वास्तविकता और कल्पना में अंतर होता है, जिसे अक्सर लोग नहीं समझ पाते हैं।

‘कोशिश करते रहो, लेकिन परिणाम की उम्मीद मत करो’ आपने इस कहावत (Kahawat) को बचपन से सुना होगा। लेकिन इस पर मेरा विचार थोड़ा अलग है। मेरा मानना है कि क्या उम्मीद के बिना आप जीवन में आगे बढ़ सकते हैं? शायद नहीं, शायद आपके जीवन में कोई लक्ष्य और प्रेरणा ही नहीं होगी। जब तक प्रेरणा नहीं होती, तब तक आप कोई काम नहीं कर पाते हैं। बिना काम किए विकास संभव नहीं है। इसलिए मेरा मत है कि हर इंसान को उम्मीद रखनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक तिष्य महेंद्रू साहनी की भी यही राय है। वह कहती हैं कि, “जब हम किसी भी चीज़ की उम्मीद करते हैं, तो वह हमारा आगे का मार्ग प्रशस्त करती है। जैसा कि सभी जानते हैं कि किसी ने अपना भविष्य नहीं देखा है, लेकिन उम्मीद करने से भविष्य के लिए प्लान तैयार किया जा सकता है। जो एक तरह से हमें अपने जीवन का भविष्यवक्ता बना देती है।” इसलिए वेयर के बात के विपरीत उम्मीद करना इतना भी बुरा नहीं है।

फिर भी हमें यह समझना होगा कि हकीकत और उम्मीदों के बीच एक अंतर ज़रूर होता है, जो चिंता का कारण भी बन सकता है। यह स्थिति रिश्तों के मामले में पैदा होती है। जैसे एक बेटी से उसके पिता को काफी उम्मीदें होती हैं। लेकिन, एक वक्त ऐसा आता है कि बेटी को लेकर पिता इतना अधिक उम्मीद लगा लेता है कि वह अपनी इच्छाएं बेटी पर थोपना शुरू कर देता है। माना कि हर पिता अपने बेटी का बेस्ट ही सोचता है, लेकिन जब बेटी कुछ अपने मन मुताबिक करती है, तब पिता निराश हो सकता है। इसी तरह से एक मां है, जो अपने बेटे को देखती है और उसके जन्म व देखभाल के पलों को याद करती है। लेकिन क्या अब मां अपने बड़े हो चुके बेटे पर शादी और बच्चे करने की उम्मीद को थोप सकती है? एक मां होने के नाते उन्होंने तो उम्मीद लगा ली, लेकिन बेटे के जीवन में उसके भी कुछ लक्ष्य है और वह उसे हासिल करना चाहता है। इस जगह पर आकर मां दुखी और निराश होगी।

ऐसा भी हो सकता है कि एक भाई पर कर्ज का बोझ है। भाई यह उम्मीद कर रहा है कि उसके जीवन के इस कठिन समय से उसकी बहन उसे निकालेगी। लेकिन क्या ऐसी उम्मीद करना सही है? उसकी बहन अपने मेहनत की कमाई (Mehnat ki kamai) अपने भाई के लिए खर्च करेगी या नहीं, यह उसकी अपनी स्थिति पर निर्भर करता है। शायद ऐसी स्थिति में आपका बेस्ट फ्रेंड आपकी मदद करने के लिए तैयार भी हो जाए। लेकिन क्या अपने दोस्त से अपनी हर समस्या के समाधान की उम्मीद आप कर सकते हैं? मुमकिन है कि एक बार आपका दोस्त आपकी मदद कर भी दे, लेकिन बार-बार मदद मांगने पर वह भी एक रोज मना कर देगा। उसे ऐसा महसूस होगा कि आपकी आदत ही ऐसी है।

हमारे अपने लोगों को कैसा महसूस होता है और हम उनसे क्या उम्मीद करते हैं, इसके बीच अंतर है। जब हम इस अंतर को नहीं समझते हैं, तो अपने लिए खुद ही निराशी की खाई खोदते हैं। क्योंकि हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि हम किस तरह से रिश्ते काफी नाजुक होने के साथ जटिल भी होते हैं। इसमें हमारी उम्मीदें आग में घी का काम करती हैं। मैं एक कहानी प्रेमी हूं, इसलिए मेरा दिमाग हमेंशा ख्यालों में खोया रहता है। लेकिन, मेरे पैरों के नीचे की जमीन हमेशा मुझे झकझोरती रहती है, जिससे मैं अपनी वास्तिवकता में रहूं। मैंने अपने रिश्तों को जब काफी करीब से समझने की कोशिश की तब मैंने पाया कि मैं लोगों से और लोग मुझसे निराश क्यों रहते हैं। क्योंकि सब एक उम्मीद के धागे से जुड़े हैं और फिर वह टूटता है और धागे में गांठ पड़ जाती है।

अपने रिश्तों को खंगालने के दौरान मैंने तीन बातें देखी कि सबसे पहले, मैं किसी और को रिश्ते की सलाह देती हूं, तब मैं खुद को प्रैक्टिकल पाती हूं। लेकिन, जब उसी समस्या का सामना मैं अपने रिश्तों के साथ करती हूं, तब मैं प्रैक्टिकल नहीं होती हूं। मैं काफी अवास्तविक हो जाती हूं। इस प्रकार की अपनी दोयम दर्जे की सोच को स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। दूसरी बात जो मैंने देखी वो ये थी कि जब कोई दूसरा मुझसे किसी भी चीज़ के लिए उम्मीद करता है, तब मैं अपनी असहजता और मजबूरियों की एक लिस्ट उसे गिना देती हूं। तब मुझे महसूस हुआ कि जब मैं भी ऐसा करती हूं, तो सामने वाला भी इसी परेशानी का सामना करता होगा। अंतिम और तीसरी बात यह थी कि, कुछ लोग वाकई में इतने सहज और सुलझे हुए हो सकते हैं, जो एक खुली सोच के साथ मेरी अपेक्षाओं को स्वीकार करके उस पर काम कर सकते हैं।

रिश्तों के इस तरह के समीकरण में मुझे TEDx शो में वेयर की कही हुई बात याद आती है कि सच में कुछ मामलों में हमारी पूर्वधारणाएं हमारे कष्ट का कारण बनती हैं। इसलिए मैंने रिश्तों के प्रति अपेक्षाओं को समझने पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। किसी से भी की जाने वाली अवास्तविक उम्मीदें रिश्तों में खटास पैदा कर देती हैं। मेरे जैसी मस्त मलंग लड़की के लिए वेयर की ये बात आईना दिखाने जैसा है।

जाने अनजाने ही सही, लेकिन सभी अपने मन में एक अच्छे पार्टनर की उम्मीद करते हैं। अपेक्षा करते हैं कि वह मेरे सपनों को अपना समझेगा, मेरी ज़रुरतें पूरी करेगा और एक बेहतर प्रेमी बनेगा, जो मुझे बखूबी समझेगा। लेकिन, विवाह के बाद ये काल्पनिक वैवाहिक आनंद धीरे-धीरे विवाद का रूप ले लेती है। हकीकत तो यह है कि कल्पनाओं से वास्तविकता में आते ही उम्मीद टूटने का दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। फिर शुरू होता है संघर्ष रिश्तों को संजोने का। यदि दोनों पक्षों ने सही प्रयास किया तो रिश्ता वास्तविकता के धरातल पर अंकुरित होने लगता है अन्यथा वह टूट जाता है।

एक खुशहाल रिश्ते के लिए हमें सबसे पहले यह समझने की ज़रुरत होगी कि हमारी उम्मीद वास्तविकता के कितने करीब है। ताकि जब वह अपेक्षाओं से थोड़ा अलग हो, तब भी हमें साकार होती नज़र आए। असल में उम्मीदें ही हैं, जो रिश्तों को आगे बढ़ाने के लिए रस्सी कि तरह काम करती हैं। इसलिए दूसरों से उम्मीदें कम रखें और वास्तविक अपेक्षाएं रखें। मैं अभी भी प्रयासरत हूं कि मैं रिश्तों को उनकी वास्तविकता के साथ स्वीकार सकूं। मुझे उम्मीद है कि मैं एक दिन ऐसा करने में सफल रहूंगी।