पांच वर्ष पहले 25 वर्षीय रश्मि अपने वैवाहिक जीवन से परेशान होकर एक होटल की 28वीं मंजिल के कमरे की खिड़की के पास आत्महत्या करने के इरादे से पहुंची। गुस्से में रश्मि ने तय कर लिया था कि अब बात बर्दाश्त से बाहर निकल गई है। उसने जिस व्यक्ति को दिल से प्यार किया, उसने उसे सिर्फ जिल्लत और नफरत के अलावा कुछ नहीं दिया था। रश्मि इसी उधेड़बुन में खिड़की के दरवाज़े को खोलने की कोशिश कर रही थी, लेकिन खिड़की टस से मस नहीं हुई। आखिरकार रश्मि ने कुछ देर की कोशिश के बाद हार मान ली। यह तिनके का सहारा (To hold on to the light) जैसा था।
हम सभी के साथ ज़िंदगी ऐसा ही खेल खेलती है। भले ही हम कितने ही हिम्मती क्यों ना हों, पीड़ा में हम ज़िंदगी से हार मानने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन निराशा के इन पलों में यह समझना ज़रूरी होता है कि गम का अंधियारा जल्द ही खत्म हो जाएगा और उम्मीद की नई किरण दिखाई देगी, जो तिनके का सहारा होगा।
लोग सुसाइड जैसा कदम ना उठाएं इसलिए सोलवेदा ने वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे पर कुछ ऐसे लोगों से बात की, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी से लगभग हार मान ली थी। लेकिन उन्हें तिनके का सहारा मिला और ज़िंदगी ने उन्हें दोबारा मौका दिया।
आत्महत्या करने की प्रवृत्ति किसी व्यक्ति के अवसादग्रस्त होने पर काफी ज्यादा बढ़ जाती है। अक्सर हमारे हाथ से बाहर चली गई परिस्थितियां, मानसिक तनाव जैसी बात किसी भी व्यक्ति की ऊर्जा को भीतर तक निचोड़ कर रख सकती है। ऐसे में उसे लगता है कि जीने से आसान, तो मौत को गले लगा लेना होगा।
मनोचिकित्सक प्राची दीक्षित बताती हैं कि अपनी जान लेने की बात सोचने वाले व्यक्ति को लगता है कि अब वह एक ऐसी अंधेरी गली में घुस चुका है, जिसके दूसरे छोर पर उसके लिए उजाला नहीं सिर्फ अंधकार है। शायद अब इस दुख भरी ज़िंदगी से उसे निजात नहीं मिल सकती।
रश्मि के मामले में एक भावनात्मक रूप से टूट चुका रिश्ता उसे खोखला कर रहा था। उसके अवसाद तथा चिंता को बढ़ा रहा था। प्राची दीक्षित के अनुसार जिस दिन रश्मि ने सुसाइड की कोशिश की उस दिन वह खुद को हताश महसूस कर रही थी। सौभाग्य से उस दिन बंद खिड़की ने उसे बचा लिया। जो तिनके का सहारा जैसा उसकी ज़िंदगी में हुआ। उस दिन के बाद रश्मि ने खुद को संभाल लिया और आज वह एक सामाजिक कार्यकर्ता और फिल्म निर्माता है।
हां, यह भी सच है कि उसमें यह परिवर्तन आने की प्रक्रिया रातों-रात नहीं हुई। वैवाहिक संबंध खत्म करने में उसे तीन वर्ष लग गए। रश्मि के अनुसार उन्होंने खुद को धीरे-धीरे संभाला। फिर वह फिल्म बनाने लगी और नाटक भी लिखे। उन्होंने खुद को ऐसे लोगों, विचारों और यादों से दूर रखने का फैसला किया, जो उन्हें पुरानी ज़िंदगी में लेकर चले जाते थे।
भले ही हमारी परिस्थिति हमारे दिमाग की स्थिति को नियंत्रित करती है, लेकिन कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है। हमारी मानसिक बीमारी की वजह से भी ज़िंदगी को देखने का हमारा नजरिया प्रभावित हो सकता है और ऐसे में स्थितियां कुछ पीड़ादायक हो सकती हैं।
दुबई निवासी पत्रकार अद्वैता का ही मामला ले लो। उन्हें 19 वर्ष की आयु में पता चला कि उन्हें बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी डिसऑर्डर है। उनका मूड अचानक बदल जाता, भीतर तक वह खुद को असुरक्षित महसूस करती और फैसलों पर अडिग नहीं रह पाती थी। उस दौर में उन्होंने अपनी पढ़ाई को खतरे में डाल दिया। क्योंकि उन्होंने फर्स्ट ईयर में ही कॉलेज छोड़ दिया था। उन्होंने कुछ गलत वित्तीय निर्णय लिए और निज़ी ज़िंदगी में भी धैर्य हासिल नहीं कर सकी। जब स्थितियां हाथ से बाहर जाने लगी, तो अद्वैता ने खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, ताकि कोई उसकी सहायता कर सके।
लेकिन लोग हर समय आपकी सहायता के लिए नहीं आ सकते। ऐसे में आपको स्वयं ही ऐसी प्रवृत्ति से दूर रहना होगा, ताकि आप सुरक्षित रह सकें।
निश्चित ही इस तरह मानसिक तनाव झेल रहे लोगों का ध्यान रखकर उन्हें सहायता करने की आवश्यकता होती है। ऐसे लोग खुद को नुकसान इसलिए भी पहुंचाते हैं, ताकि कोई उन पर ध्यान दे। इनमें अद्वैता जैसे कुछ भाग्यशाली लोग होते हैं, जिनके पास उनकी सहायता कर उनका ध्यान रखने वाले करीबी होते हैं। उसके पास उसके माता-पिता और करीबी दोस्तों का एक व्यापक दायरा था, जो उसकी इन नाजुक क्षणों में सहायता करता था। जब अद्वैता ने सहायता पाने के लिए एक वर्ष का ब्रेक लिया, तो वे सब उसके साथ थे। उसने कहा कि उसने मनोचिकित्सक की मदद ली। साथ ही उन्होंने खुद का एक सुरक्षा कवच बनाया, जिसमें उसका पसंदीदा काम, उसके विश्वासपात्र लोग, उसके शौक और हुनर शामिल थे। उसने बेहद संवेदनशील होकर इसे तैयार किया था। जो तिनके का सहारा जैसा था।
कठिन परिस्थितियों में अपनों का सुरक्षा कवच होना ही चाहिए, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण होता है, खुद में ज़िंदगी जीने की चाह। वह भी भीतर से हासिल करना। एसएएचएआई की सुसाइड प्रतिबंध एंड इमोशनल डिस्ट्रेस हेल्पलाइन से जुड़े पेशेवर लोगों से बेहतर इसे कौन जानता होगा। हेल्पलाइन को संचालित करने वाली डॉ बबिता गुप्ता कहती हैं कि सुसाइड करने के लिए तैयार व्यक्ति हमें कॉल करता है, तो हम उसे सलाह देने के बजाय उससे बात करते हैं, ताकि वह शांत हो जाए। फिर उसके साथ चर्चा को ऐसा मोड़ देते हैं कि वह स्वयं यह विचार करे कि वह गलत कर रहा है। यह कदम उठाने से कोई फायदा नहीं होने वाला। कहने की जरूरत नहीं है कि विशेषज्ञ की सहायता पाना न केवल जरूरी है, बल्कि यह फायदेमंद भी साबित होता है। ऐसे में मानसिक तनाव से गुजर रहे व्यक्ति को नियमित रूप से विशेषज्ञ से बात करते रहना चाहिए, ताकि वह अपनी ज़िंदगी को वापस पटरी पर ला सके।
अद्वैता कहती हैं कि रोजाना डायरी लिखने की आदत भी इसमें लाभदायक सिद्ध होती है। प्राची दीक्षित के अनुसार इसमें अपनी उपलब्धियां और खामियां लिखने से यह पता चल जाता है कि गलती कहां हो रही है। यदि किसी में सुसाइड करने की इच्छा प्रबल हो रही हो, तो उसे ऐसे व्यक्ति से बात करनी चाहिए, जो उसके लिए नाजुक दौर में हमेशा साथ खड़ा रहा हो। जो उसके लाइफ में तिनके का सहारा के जैसे होता है।
मानसिक तनाव से लड़ाई बेहद मुश्किल और कभी-कभी अकेलेपन में ले जा सकता है। ऐसे में जब कभी सुसाइड का मन करे, तो ज़िंदगी के खुशनुमा पलों को याद कर लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार हम फिर से खूबसूरत जीवन जीने की कोशिश कर सकते हैं। हमारी अंदरूनी ताकत ही हमें सही राह दिखा सकती है।
अल्बस दुम्बलेडोरे ने यह सलाह तो दे ही रखी है कि जब भी जीवन में अंधेरा छा रहा हो, अपने सुनहरे पलों की रोशनी से उसे निकाल बाहर करो।
(लेख में कुछ नाम परिवर्तित हैं)