आशा ढूँढना, उम्मीद

निराशा में आशा ढूंढना

यह बहुत मायने रखता है कि हम बीमारी को किस तरह देखते हैं। कुछ लोग इसे असाध्य मानते हैं लेकिन कुछ अपनी बीमारी को एक चुनौती के रूप में लेते हैं और आशा ढूंढते हुए उससे लड़ते हैं।

सिंगल पैरेंट मां सविता नंदन के लिए ज़िंदगी तब तक अच्छी-भली योजनाबद्ध तरीके से चल रही थी, जब तक की वह बीमार नहीं पड़ी। जो रोग शुरू में बुखार से शुरू हुआ वह पूर्ण विकसित एचआईवी संक्रमण निकला। रोग के इलाज ने उस पर तूफानी रात में ओले की तरह प्रहार किया। सविता रुंधे हुए गले से यह सब कह रही थी “मैं कई दिनों तक रोती बिलखती रही। मैं अपने माता-पिता को इसके बारे में नहीं बताना चाहती थी, क्योंकि इस बीमारी के साथ एक कलंक जुड़ा हुआ है। उस समय मेरा और मेरी छोटी बेटी का ध्यान रखने वाला कोई न था। मेरे पति शादी के 3 साल के अंदर पहले ही गुज़र चुके थे।”

बहुत ही लोकप्रिय पुस्तक – टू कैंसर, विद लव; माय जर्नी ऑफ जॉय की लेखिका नीलम कुमार को एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार स्तन कैंसर हुआ था। लेखिका ने एक खास बातचीत में सोलवेदा को बताया “पहली बार पति की मृत्यु के फौरन बाद मुझे कैंसर का पता चला। यह बड़ा ही कठिन समय था। मैं दो छोटे बच्चों की एकाकी मां थी। मैं यह सोच कर परेशान, नाराज़ नर्वस रहती थी कि मेरे बाद इन बच्चों का क्या होगा?”

सविता नंदन और नीलम कुमार अकेली नहीं हैं। हममें से बहुत सारे लोग गंभीर बीमारियों के साथ आने वाली अकल्पनीय मुश्किलों से गुज़रते, आशा ढूंढते और उन्हें झेलते हैं। ताज्जुब है कि कभी-कभार साधारण से प्रतीत होने वाले लक्षण आगे चलकर गंभीर रोग निकलते हैं। पेशे से बैंकर सीमा करिअप्पा पुराने पीठ दर्द से अपाहिज हो गई थी। जो पीठ दर्द शुरू में गलत आसन में बैठने का परिणाम लग रहा था वह अंतिम अवस्था वाला अग्नाशय का कैंसर निकला। उन्होंने 2 महीने जीवन के लिए संघर्ष किया और बड़े-बड़े सपने देखने वाली उत्साही सीमा का युवावस्था में ही देहांत हो गया।

जीवन अनिश्चितताओं का नाम है पर मृत्यु निश्चित और अटल है। जो लोग रोगों की अंतिम अवस्था से लड़ रहे होते हैं, उनके लिए मरने का विचार पहले से कहीं ज़्यादा निश्चित हो जाता है। अगर उनके लिए कुछ अस्पष्ट और अनिश्चित रहता है, तो वह है कि वे आज मरेंगे या आज से दो-तीन साल बाद। साइकोसोशल ऑन्कोलॉजी में विशेषज्ञता हासिल करने में प्रयासरत परामर्श दात्री शोमा चक्रवर्ती इस मुद्दे पर प्रकाश डालती हैं, “जब किसी व्यक्ति को कैंसर होने का पता चलता है, तो उसके जीवन का संतुलन गड़बड़ा जाता है। कोई यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता की रोगी कब तक जीवित रहेगा। यहां तक कि डॉक्टर भी नहीं बता सकते हैं। सिर्फ बीमारी नहीं बल्कि यह अनिश्चितता व्यक्ति की जीने की इच्छा की परीक्षा लेती है।”

जबकि पृथ्वी पर उनका समय अनिश्चित हो सकता है फिर भी यह अनिश्चितता रोगियों को उपचार का विकल्प आज़माने से नहीं रोकती। आखिरकार वे आशा ढूंढते है कि इलाज से उनकी हालत बेहतर हो सकती है। जल्दी ही अस्पताल उनका दूसरा घर बन जाता है। डॉक्टरों से मुलाकात उनकी प्राथमिकता बन जाती है। नसों से बार-बार रक्त निकाले जाने के कारण पूरे शरीर पर सुइयों के निशान पड़ जाते हैं। दर्द निवारक दवा तथा टॉनिक उनकी खुराक का नियमित हिस्सा बन जाते हैं। जो कैंसर से पीड़ित हैं वे लोग कीमोथेरेपी से कमज़ोर व न चलने फिरने लायक बना दिए जाते हैं। कीमोथेरेपी वह विशेष उपचार शैली है, जो इस बीमारी से निपटने में सक्षम मानी जाती है।

यह सही है कि दवाइयां शरीर की पीड़ा को कम करती हैं। दुर्भाग्य यह है कि वे भावनाओं के लिए कुछ नहीं कर पातीं। सबसे कठिन बात है भावनात्मक खलबली का सामना करना। ये रोगी खुद को कमज़ोर और असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। वे नहीं जानते कि अपनी परस्पर विरोधी भावनाओं का क्या करें? उन्हें कैसे समझें? नीलम अस्वीकृति, क्रोध, चिंता और दुख की तमाम अवस्थाओं से गुज़री हैं। वह कबूल करती हैं कि “मैं ‘केवल मैं ही क्यों?’ वाली मनोस्थिति से गुज़री थीं।

ऐसी गंभीर भावनाओं से दैनिक आधार पर निपटना व आशा ढूंढना (Find hope) कठिन होता है। इन रोगियों को इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं होता कि जब वे अगले दिन सुबह उठेंगे, तो कैसा महसूस करेंगे? ऐसे दिन भी आते हैं जब उनके लिए दुनियादारी के साधारण काम कर पाना भी कठिन होता जाता है। ऐसे भी कुछ दिन आते हैं जब रोगी पहले जैसा स्वस्थ तंदुरुस्त महसूस कर सकते हैं। यह अस्थिरता तीव्र भावनाओं को भड़काती है। इससे रोगी मजबूर और लाचार महसूस करने लगता है।

यह लाचारी जीवन के निरर्थक होने की भावना की ओर ले जाती है। आखिरकार इस यथार्थ को स्वीकार कर पाना सरल नहीं है कि व्यक्ति कमज़ोर कर डालने वाली बीमारी से पीड़ित है और वह स्त्री या पुरुष पहले जैसी ज़िंदगी जीने में असमर्थ है। यह मरणोन्मुख (जो मर रहा हो या जल्दी मरने वाला हो) सोच कभी-कभी उन्हें अवसाद के गहरे अंधेरे गर्त में डुबो सकती है। ऐसी दशाओं में मनोविज्ञानी रोगियों को आशा ढूंढने व जीवन का उद्देश्य खोजने की सलाह देते हैं। “वे रोगियों से कहते हैं कि आप जिन लोगों से प्रेम करते हैं, उनसे जुड़ने की कोशिश करें और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करें क्योंकि ऐसा करना उनके जीवन को सार्थकता प्रदान करने में मददगार होगा,” ऐसा कहना है शोमा चक्रवर्ती का। नीलम के लिए तो निश्चय ही यह सलाह काम की सिद्ध हुई थी। यहां तक की उसने तो अपने कीमोथेरेपी सत्र के दौरान ही अपनी पहली पुस्तक लिखनी शुरू कर दी थी। हालांकि यह आश्चर्यजनक प्रतीत हो सकता है कि नीलम अपनी बीमारी के बावजूद एक बहुत ही आशा ढूंढने वाली, उम्मीद जगाने वाली व हर्षित व्यक्ति में बदल गई।

स्पष्ट है कि इस बात से बहुत फर्क पड़ता है कि कोई व्यक्ति अपनी बीमारी को लेकर क्या सोचता है? कुछ रोगी बीमारी को ऐसी समस्या मानते हैं जिसका कोई समाधान ही नहीं है। जबकि दूसरे रोगी इसे एक चुनौती मानते हैं और इससे संघर्ष व आशा ढूंढते हैं। उम्मीद जगाकर वे इसे जीवन जीने का दूसरा मौका समझते हैं। एचआईवी के लक्षणों और निदान ने सविता को हिलाकर रख दिया था, पर उसने उम्मीद नहीं छोड़ी। इसकी बजाय बीमारी के पूर्वानुमान ने उसे स्नातक परीक्षा देने अध्यापिका बनने के लिए प्रेरित किया आज वह एक स्वतंत्र महिला हैं और सफलतापूर्वक अपनी गृहस्थी चला रही हैं। 

पीड़ित मनोस्थिति से विजेता मनोस्थिति में जाना सरल नहीं है। गंभीर बीमारी के साथ जीने के लिए विशुद्ध चारित्रिक बल और दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रुरत होती है। इसलिए यह बात बहुत ज़्यादा आश्चर्यजनक नहीं है कि ऐसे रोगियों को आत्म-सहायक समूहों में बड़ी सांत्वना मिलती है। डॉक्टर ग्लोरी अलेक्जेंडर बेंगलुरू में स्थित आशा फाउंडेशन की निदेशक हैं। यह फाउंडेशन एक एनजीओ है जो एचआईवी/एड्स से संक्रमित लोगों एवं उनके परिवारों के साथ काम करता है। वह कहती हैं “जब इन आत्म-सहायक समूहों के सदस्य आपस में मिलते-जुलते हैं, तो एक दूसरे से साझेदारी के माध्यम से बहुत शक्ति प्राप्त करते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनके जैसे लोग दुनिया में और भी हैं, तो वे परिस्थितियों से और अच्छी तरह मुकाबला कर पाते हैं।”

गंभीर बीमारियों के रोगी जीवन की वास्तविकताओं का सामना किस तरह करते हैं यह अलग-अलग हो सकता है। पर उनमें से हर एक उन संतापों और विषादों पर विजय प्राप्त करने की आंतरिक शक्ति प्राप्त करता है, जो उनके रोगों के पूर्वानुमान के साथ अपरिहार्य रूप से जुड़े हुए होते हैं। वास्तव में नीलम कुमार और सविता नंदन इस बात के चलतेफिरते सबूत हैं कि कैसे विशुद्ध साहस और आशावादिता उन भगीरथ चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, जो ज़िंदगी ने आपके सामने खड़ी कर दी है। 

आखिर में यह कहानी अपने समय का सर्वोत्तम उपयोग करने, आशा ढूंढने के बारे में है। कुछ का उत्प्रेरक बल यह बोध हो सकता है कि जीवन कितना मूल्यवान है जबकि दूसरों का उत्प्रेरक बल हो सकता है – परिवार का प्रेम। कारण चाहे जो भी हो वे अपनी बीमारियों से आशा ढूंढते हुए, उत्साह व उम्मीद के साथ लड़ते हैं। शायद वे ज़िंदगी की कीमत हमसे ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं। जैसा की चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने एक जगह लिखा है, “हम सबके दो जीवन होते हैं। दूसरे जीवन का आरंभ तब होता है जब हमें यह महसूस होता है कि हमारे पास तो केवल एक ही जीवन है।”

(कुछ नाम बदले गए हैं।)

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