“बचपन की यादें हैं दिलों में ज़िंदा,
वो मासूम हंसी, वो खिलखिलाता सा बच्चा।
न फिक्र थी कल की, न कोई उलझन थी,
बस सपनों की दुनिया और मीठी सरगम थी।”
अपने बचपन की यादों को सोचते वक्त मेरे दिमाग में कुछ ऐसी ही कविताएं घूमने लगती हैं। बचपन को दोबारा जीने की इच्छा किसे नहीं होती? मुझे भी है। मैं ये यकीन से कह सकती हूं मेरी तरह अगर आपको भी बचपन फिर से जीने के लिए मिले तो आप उसे झट से लपक लेना चाहेंगे। बचपन हमारी ज़िंदगी का वो सबसे खूबसूरत दौर होता है, जहां न कोई चिंता होती है और न कोई भागदौड़। वो मासूम हंसी, खिलखिलाना, और छोटी-छोटी खुशियों में बड़ी दुनिया बसाना, यही हमारी असली पूंजी होती है।
जब हम बड़े होते हैं, तो ज़िम्मेदारियों के बीच ये यादें हमें सुकून देती हैं और खुशी के पल दोबारा जीने का एहसास कराती हैं। बचपन की मासूमियत और बेफिक्री से जीने का मौका ज़िंदगी में फिर कभी नहीं मिलता। सिर पर न कोई ज़िम्मेदारी होती है, और न ही कोई चिंता और फिक्र सताती है। बचपन इतना मासूम होता है कि हमें न तो किसी से दुश्मनी करना आता है और न ही किसी से नाराज़ होना।
इतना साफ और मासूम मन पाने की इच्छा अब भी होती है कि काश! बचपन जैसी मासूमियत और भोलापन हमेशा रहता तो ज़िंदगी कितनी प्यार भरी और आसान होती। खैर, बचपन तो हमेशा नहीं रह सकता, पर बचपन की यादें हमेशा हमारे साथ रह सकती हैं। बचपन की यादें हमें फिर से उन्हीं खूबसूरत यादों में ले जाती हैं और हमारे मन को खुशियों से भर देती हैं। तो चाहिए मैं सोलवेदा के साथ आपको बचपन से जुड़ी ऐसी ही आदतों को याद दिलाती हूं, जिन्हें याद करके आपके चेहरे पर मुस्कान आ जायेगी।
बचपन की यादें रहनी चाहिए दिलों में ज़िंदा (Bachapan ki yadein rahni chahiye dilon mein zinda)
बचपन की यादें इतनी खूबसूरत होती हैं कि वो वक्त के साथ धुंधली तो हो सकती हैं, लेकिन उनका एहसास कभी भी पूरी तरह खत्म नहीं होता। जब हम किसी पुराने खिलौने को देखते हैं या किसी भूले-बिसरे दोस्त का नाम सुनते हैं, तो मन उसी दौर में फिर से लौट जाता है। ये यादें सिर्फ बीते वक्त का हिस्सा नहीं होतीं, बल्कि हमारी सोच और खुशियों पर भी असर करती हैं। जब ज़िंदगी में परेशानियां बढ़ जाती हैं, तो वही बचपन की मासूमियत हमें सिखाती है कि खुश रहने के लिए किसी बड़ी वजह की ज़रूरत नहीं होती। बचपन की यादें केवल बीते समय की तस्वीरें नहीं होतीं, बल्कि वो हमारे अंदर के बच्चे को ज़िंदा रखने का ज़रिया होती हैं। इसलिए, बचपन की मासूमियत और सादगी को दिल में संजोकर रखना ज़रूरी है, ताकि ज़िंदगी की खुशी कभी न खोए।
गांव की चाइल्डहुड मेमोरीज बनाती हैं जीवन को आसान (Gaon ki childhood memories banati hain jeevan ko asaan)
अपने नाना नानी या दादा दादी के गांव को तो हम सब ने बचपन में कभी न कभी देखा होगा। वहां रहे होंगे या छुटियां बिताने गये होंगे। वो गांव की बचपन की यादें, हमारी ज़िंदगी के सिर्फ बीते हुए पल नहीं होतीं, बल्कि जीवन जीने का सलीका होते हैं। मिट्टी में खेलते हुए, नंगे पैर दौड़ते हुए और पेड़ों की छांव में कहानियां सुनते हुए जो अनुभव हमें मिलता है, वो सब आगे चलकर, ज़िंदगी के बड़े फैसलों में हमारी मदद करता है। गांव की सादगी, रिश्तों की गहराई और छोटी-छोटी खुशियों (Happiness) में सुकून पाना हमें जीवन की असली समझ देता है। मेरे गांव की बचपन की यादें मेरी दादी के गांव से जुड़ी हैं। उन चाइल्डहुड मेमोरीज में मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है खेतों की मुंडेर पर नंगे पांव चलना। खेतों की हरियाली, कुएं का ठंडा पानी और शाम की चौपालें, ये सब मिलकर मुझे जीवन के छोटे-छोटे सुखों को महसूस करना सिखाते हैं।
चलों करें बचपन की उन 6 सुनहरी यादों को याद (Chalo karein bachpan ki un sunhari yaadon ko yaad)
बचपन की 6 सुनहरी यादें:
मिट्टी में खेलना
बचपन में खेलने के लिए किसी आलीशान पार्क की जरूरत नहीं होती थी। घर के बाहर का आंगन या फिर गलियं ही हमारे लिए सबसे बड़े खेल का मैदान होती थीं। मिट्टी में खेलना न केवल खुशी देता था बल्कि रेत में छपे पैरों के निशानों को देखना मजेदार भी हुआ करता था।
मम्मी के साथ बाज़ार जाने की ज़िद
बचपन में बाज़ार जाने की जितनी खुशी होती थी, उतनी शायद किसी और चीज़ में नहीं। मम्मी जब तैयार होती, तो उनके पीछे-पीछे घूमना और साथ में जाने की ज़िद करना हर बहुत ज़रूरी काम था। पर मम्मी हमें अंदर से जूते पहनकर आने के लिए कहती और हमें चकमा देकर अकेले बाज़ार चली जातीं, इस बात पर रोना तो बहुत आता पर मम्मी की लाई हुई खाने की चीज़ सारा मूड ठीक कर देती थी।
चॉकलेट ले आना
बचपन की यादें यूं तो एक जैसी ही होती हैं और उनमें सबसे ज़रूरी होती है चॉकलेट। तो क्या आप भी मेरी तरह मम्मी या पापा के बाहर जाने पर उनसे लौटने वक्त ऐसा ज़रूरी कहते थे कि, “मेरे लिए चौकलेट ले आना!”
पापा की गोद में सोकर जागना
बचपन में कहीं भी खेलते-खेलते सो जाना आम बात थी। लेकिन जब सुबह आंख खुलती थी, तो हमेशा खुद को बिस्तर पर पाते थे। ये एक अनकही जादूई ताकत थी, जो हमें हमेशा सुरक्षित महसूस कराती थी।
फूंक मारकर चोट ठीक करना
बचपन में जब भी चोट लगती थी, तो पहला डायलॉग होता था—“मम्मी, फूं फूं कर दो!” और जैसे ही मम्मी फूंक मारती थीं, दर्द सच में कम लगने लगता था। आज समझ आता है कि वो प्यार की फूंक थी, जिसने हर चोट को चुटकियों में भुला दिया।
कट्टी बट्टी
बचपन की यादें यूंही खत्म नहीं होतीं, उनकी लिस्ट बहुत लम्बी होती है। बचपन की एक और याद, जब किसी दोस्त से लड़ाई हो जाती या मम्मी से नाराज़गी होती, तो हम झट से कट्टी बट्टी कर देते और कुछ ही देर में उस नाराज़गी को भूल कर फिर से पहले जैसे खेलने लगते थे।
आपको अपने बचपन की कौन-सी याद सबसे प्यारी लगती है, हमें कमेंट करके ज़रुर बताएं। ऐसे ही और आर्टिकल पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी पर।