तेरी इच्छा पूर्ण हो

तेरी इच्छा पूर्ण हो

जब आप प्रभु के पास जाएँगे, तो आप से यह नहीं पूछा जाएगा कि तुम्हारी जाति क्या है? या तुमने किस देश में जन्म लिया? या तुम क्या काम करते थे? प्रभु के पास तो बस एक ही बात पूछी जाएगी, वह है प्रेम की बात।

बारिश के मौसम में बगीचे महकते हैं, हर चमन में सुन्दर फूल मुस्कुराते हैं। अलग-अलग प्रकार के पुष्पों की अपनी सुंदरता अपनी शोभा होती है। हर पुष्प में प्रभु ने इतना सौंदर्य भरा है कि इंसानों की तरह उन्हें सजने सँवरने की जरूरत नहीं है। अनोखे सौंदर्य से खिले रहते हैं। श्री ईसा ने कहा है। Consider the lilies of the field, neither do they sow, nor spin, yet I tell you even Solomon in all glory was arrayed like one of these!

सोलोमन एक बादशाह था। राजसी पोशाक पहनता था। बनता सँवरता था। श्री ईसा कहते हैं, सोलोमन बादशाह से ज़्यादा सुंदरता एक मामूली पुष्प में है।

वेदों में ऋषियों ने हमें यह शिक्षा दी है कि प्रभु एक है, प्रभु की कोई जाति नहीं है।

The eternal is one. He hath no caste VP प्रभु एक है, ब्रम्ह एक है, वह जात-पाँत से परे है। फिर इस भारत भूमि इस ऋषि भूमि, इस पावन पवित्र भूमि पर, जो कई लोगों के लिए एक तीर्थ स्थान है, इस भूमि पर देश विदेश से, चीन जापान से, कई यात्री आया करते थे। एक तीर्थ यात्री बनकर वे भारत आते थे इस विचार से कि वे ऋषियों, मुनियों, और संतों के श्री चरणों में बैठकर, शीश झुकाकर उनका आर्शिवाद पाएँगे, किन्तु समय बदलता गया, लोग जाति, और मज़हब के भेदभाव में उलझने लगे, और ऋषियों की शिक्षा, वेदों की शिक्षा वे भूल गए।

ब्राह्मण कहते, हम ऊँची जाति के हैं और शूद्र नीची जाति के हैं। शूद्रों को हमारे कुएँ से पानी भरने का अधिकार नहीं है। उन्हें हमारे मंदिरों में आकर पूजा करने का भी अधिकार नहीं है। मंदिरों के दरवाज़े शूद्र के लिए बंद किए गए। यदि कोई शूद्र जाति का व्यक्ति ऊँची जाति के लोगों के कुएँ से पानी भर लेता तो उसे कड़ा दण्ड देते थे। उन्हें पेड़ों पर लटकाकर नीचे से आग जला देते। उस आग की ज्वाला से शूद्रों का तन जलने झुलसने लगता, और तड़प-तड़प कर वे अपना दम तोड़ देते थे।

ऐसी बातें इस पावन भूमि में इस भारत भूमि में, जिस देश का एक ही संदेश है; “सब में है उस एक का निवास। उस एक से अलग और कोई है ही नहीं। क्या ऊँचा, क्या नीचा, क्या छोटा, क्या बड़ा। सब में है उस एक का निवास।

The one without a second

भारत यह शिक्षा भूल गया! फिर प्रभु ने अपने भक्तों को और संतों को इस पृथ्वी पर भेजा, जिन्होंने अधम जाति के वर्ग में जन्म लिया। कुछ संतों ने जुलाहों की जाति में जन्म लिया है। कुछ संत चमार हो गए हैं,  कुछ चाण्डाल भी हो गए हैं,  कुछ किसान हुए हैं। भिन्न-भिन्न जाति में संत जन्म लेते हैं और एक ही शिक्षा देते हैं।

प्रभु न पूछे जात पाँत,
प्रभु तो पूछे प्रेम की बात,
प्रेम की बात!

जब आप प्रभु के पास जाएँगे, तो आप से यह नहीं पूछा जाएगा कि तुम्हारी जाति क्या है? या तुमने किस देश में जन्म लिया? या तुम क्या काम करते थे? प्रभु के पास तो बस एक ही बात पूछी जाएगी, वह है प्रेम की बात। तुम्हारे हृदय में मानव जाति के लिए दर्द है या नहीं? पशु पक्षियों के लिए प्यार है या नहीं? यदि नहीं, तो तुम चाहे कितनी ही ऊँची जाति के क्यों न हो, पर ना कबूल, ना कबूल!

जिस प्रकार हर पुष्प की अपनी सुंदरता है, अपनी महक है, अपनी मिठास है। उसी प्रकार प्रभु के चमन में भाँति-भाँति के संत हैं हर एक संत की अपनी शोभा, अपनी सुंदरता, अपनी सुगंध, अपनी मिठास है। काश! हम हर देश के, हर कौम के,  हर धर्म के संत सतपुरूषों के चरणों में शीश झुकाएँ और उनका आशीष पाएँ। अब तक पाँच आलवरों का वर्णन मैं आपसे कर चुका हूँ। छठा आलवर, उसका नाम था तिरूपन। उसका जन्म कहाँ हुआ? उसका पिता कौन था? उसकी माता कौन थी? किसी को इस बात का पता नहीं है। पर ऐसा बताया गया है, कि यह बच्चा धान के खेत में पड़ा था। उसके मुख पर मधुर मुस्कान खेल रही थी। उसकी आँखें चमक रही थीं। उस खेत से एक हरिजन गुज़र रहा था एक अछूत, जिसकी कोई संतान नहीं थी।

उसे और उसकी पत्नी को एक बच्चे की आस थी। हरिजन जब बच्चे को देखता है, तो उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। उसे अपनी गोद में उठाकर घर ले आता है और आकर अपनी पत्नी को देता है। दोनों बच्चे को पाकर पागल हो गए, मानों उनके घर में संतान पैदा हुई हो।

उस हरिजन के घर यह बच्चा पलने लगता है। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। वह आस-पड़ोस के बच्चों से निराला था। अपनी ही धुन में रहता था। वह अक्सर घर में नहीं बैठता, हमेशा बाहर निकल जाता। कभी किसी पेड़ के नीचे बैठा रहता, या फिर कभी पक्षियों से बातें करता रहता, कभी आकाश में बादलों को निहारता।

इस बालक के कंठ से गीत निकलते थे। वह हर समय गीत गाता रहता था। किसी ने उसे वीणा दी थी, उस वीणा को बजाते हुए वह गीत गाता रहता। बालक के एक-एक गीत में प्यास झलकती थी। उसके हृदय में प्रभु दर्शन की प्यास थी। उसी प्यास से वह वीणा पर गाता।

“मैं हूँ एक अछूत पर दिल में है एक प्यास।
कब होगी पूरी, मेरे दिल की आस?
कब मिलूँगा अपने प्रियतम से”

उन दिनों अछूतों को अधम जाति का मानते थे,  उन्हें मंदिरों में जाने की इज़ाजत नहीं थी। उन दिनों ब्राह्मण कहते थे। “ये अछूत, गिरी हुई जाति के हैं, ये प्रभु को नहीं पा सकते।“

बालक ने सुना, एक शहर है। जिसका नाम है श्री रंगम। एक बार उसने देखा, कई यात्री उस शहर की ओर जा रहे थे। उसने उनसे पूछा।-

“आप वहाँ क्यों जा रहे हैं?” यात्री उसे कहते हैं। “वहाँ श्री रंगनाथ का मंदिर, श्री कृष्ण का मंदिर है। वहाँ श्री कृष्ण, शाम सुंदर के दर्शन के लिए हम जा रहे हैं।“

वह बालक कहता है। “मुझे भी ले चलो। मेरे हृदय में भी दर्शन, करने की प्यास है।“ तब लोग उससे कहते हैं, “तुम वहाँ नहीं चल सकते क्योंकि तुम तो अछूत हो,  तुम्हें मंदिर में अंदर आने नहीं देंगे।“ तब आँखों से आँसू बहते हुए वह गाता है।

“मैला हूँ मैं आकर नहाते तू निहार। सुन मेरे सजना!, तू टूटे दिल की पुकार। दे दर्शन दीदार।“

इस तरह दिन-ब-दिन उसके हृदय की प्यास बढ़ती जाती है। आखिर एक दिन वह अपने माता पिता से कहता है, मैं अब यहाँ नहीं रूक सकता। मैं जाता हूँ।

माता-पिता कहते हैं, “बालक! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम तो हमारे नैनों का नूर हो,  हमारे जीवन का सहारा हो। तुम हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हो? यदि तुम हमारे साथ हो,  तो हमें लगता है कि हमपर अशिष बरस रहा है।“ तब वह कहता है। “मैं श्री रंगम जाना चाहता हूँ।“

माता-पिता कहते हैं, “वहाँ जाकर तुम क्या करोगे? वहाँ तो सब ब्राह्मण रहते हैं। वे तुम्हें मंदिर के भीतर जाने नहीं देंगे। यदि तुम्हारी परछाई भी उनपर पड़ी तो वे तुम्हें कष्ट देंगे। तुम वहाँ क्यों जा रहे हो?  यहाँ तुम सुखी हो।“

तब वह रो पड़ता है और कहता है मैं क्या करूँ? मैं यहाँ पर रह नहीं सकता! मैं जा रहा हूँ। अपने प्रीतम के पास। मेरी स्नेह भरी पुकार वह जरूर सुनेगा मुझे अपनी छत्रा छाया में बिठाएगा।

वह श्री रंगम आता है। वहाँ काँवेरी नदी के तट पर मंदिर से कुछ दूर एक कुटिया बनाकर रहने लगता है और वीणा बजाकर गीत गाता है। प्यास भरे गीत! कई बार गीत गाते-गाते वह बेसुध हो जाता और उसकी समाधि लग जाती है। इस सतपुरूष का नाम था तिरूपन, परंतु उसे एक और नाम से पुकारते हैं वह नाम है “मुनिवाहन”। मुनि वाहन का अर्थ है जिसका वाहन मुनि था। जिसने मुनि पर सवारी की! यह कैसे हुआ?

श्रीरंगनाथ के मंदिर में एक पुजारी, जिसका नाम लोकसारंग मुनि था। लोग उसकी बहुत इज्ज़त करते थे। लोग उसके चरणों में सिर झुकाते थे। उसे प्रभु का भक्त मानते थे। एक दिन लोकसारंग मुनि रंगनाथजी के अभिषेक के लिए काँवेरी नदी से पानी भरने गया। पानी की गागर भरकर जैसे ही वह लौट रहा था तो राह में तीरूपन बैठा था।

उसकी यह हालात थी, कि प्रभु के गीत गाते गाते शरीर की कोई सुध नहीं थी। लोकसारंग मुनि ने देखा, राह में एक अछूत पड़ा है। वह वहाँ से चिल्लाता है, “हट जाओ, मैं रंगनाथ के अभिषेक के लिए पानी भरकर ला रहा हूँ। बीच में से हट जाओ।“ एक बार, दो बार, तीन बार पुकारता। पर उसे कोई उत्तर नहीं मिलता। तब लोकसांरग मुनि कहते हैं। “यह अछूत या तो शराब के नशे में है या फिर इसे नींद आ गई है।“

तब लोकसारंग मुनि एक पत्थर उठाकर उसे मारता है। पत्थर तिरूपन के माथे पर लगता है और उसके माथे से खून की नदी बहने लगती है।

तिरूपन सजग होता है। वह अपनी आँखें खोलकर देखता है और कहता है,  यह मैंने क्या किया? मैंने बड़ा गुनाह किया है। मंदिर का पुजारी पानी भरकर अभिषेक करने जा रहा है और मैं राह में पड़ा हूँ। वह दूर से साष्टांग प्रणाम करता है और रास्ते से हट जाता है। वह कहता है, माफ करें। लोकसारंग मुनि गागर उठाकर मंदिर में रंगनाथ को स्नान कराता है। तिरूपन्न अपनी कुटिया में लौट जाता है। उसे कुछ लोग कहते हैं, “मुनि ने तुम्हें पत्थर मारा और तुम्हारे माथे से खून बह रहा है। उसने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया?” तिरूपन कहता है। “प्रिय! याद रखना। जो कुछ होता है उसमें प्रभु का राज है। जो होता है, वह अंत में भला ही होता है।“

यह बात सही है।

To them that believe, all things work for good.

जिन्हें विश्वास है, उनके लिए हर बात से उनका भला होता है सिर्फ विश्वास की ज़रूरत है। जिन्हें विश्वास नहीं है, यह बात उनपर लागू नहीं होती। पर जिन्हें विश्वास है उनके लिए एक-एक तकलीफ एक-एक मुसीबत अंत में भलाई लेकर आती है तिरूपन विश्वासी था वह हर हाल में पुकारता, “तुम ही सब कुछ जानत प्रीतम! तेरी इच्छा पूर्ण हो! दुःख में, सुःख में मेरे प्रीतम, तेरी इच्छा पूर्ण हो।“ वह स्वंय को हमेशा प्रभु की छत्रा छाया में ही समझता था।

Under Thy wings, my God, I rest,
Under Thy shadows safely lie By Thine own strength in peace possessed, while dreaded evils pass me by.

यह जीवन एक जंग का मैदान है उसमें हमारे सामने बार-बार कई तकलीफें, कष्ट और मुसीबतें आती रहती हैं। धन की तकलीफ, व्यापार में तकलीफ, ऑफिस की तकलीफ, नौकरों की परेशानी और बहुत सी तकलीफें आती हैं, परंतु हर तकलीफ उस प्रभु के हाथों से आती है जो हमारे माता पिता हैं। वह जो भी तकलीफ भेजते हैं। उसमें ही हमारा भला है। जो भी प्रभु चाहे, जो भी प्रभु करे वही मुझे स्वीकार है। तिरूपन यही शिक्षा देता है। वह लोगों से कहता बेशक माथे से खून बह रहा है। किन्तु यह भी प्रभु की लीला है। फिर देखिए क्या होता है।

रात को लोकसारंगमुनि सपना देखता है। सपने में रंगनाथ श्री कृष्ण, उसके पास आते हैं। रंगनाथ के माथे से खून बह रहा था। लोकसारंग मुनि पूछता है। “मेरे प्रभु! आपके माथे से आज खून बह रहा है उसका क्या कारण है? रंगनाथ कहते हैं, ’ खून बह रहा है। क्योंकि आज तुमने मुझे जोर से पत्थर मारा था।“ लोकसारंग मुनि आश्चर्य में पड़ जाता है। कहता है, “प्रभु मैं आपका भक्त, आपका दास आपके चरण चूमता हूँ। मैं आपको पत्थर कैसे मारूँगा?” तब रंगनाथ कहते हैं, “लोकसारंग मुनि उस भक्त को जो नदी किनारे पड़ा था, वीणा पर भजन गा रहा था, और भजन गाते-गाते उसकी समाधि लग गई थी। उसे तुमने पत्थर मारा, वह तो मेरा ही रूप था, जो पत्थर तुमने उसे मारा वह मुझे आकर लगा।“

यह सुनकर लोकसारंग मुनि डर जाता है और कहता है, “मैंने तो बड़ा गुनाह कर दिया। अब मैं ऐसा क्या करूं कि इस पाप से मुझे छुटकारा मिल जाए। तब रंगनाथ कहते हैं। “जिसे तुमने पत्थर मारा था उसे ढूँढ़कर अपने कंधों पर बिठाओ फिर सारे शहर में उसे घुमाओ। घुमाने के बाद मंदिर के चारों ओर परिक्रमा दिलाओ। फिर उसे मंदिर के अंदर ले जाओ, तो तुम्हारा पाप धुल जाएगा।“

कितनी बार हम अभिमान में आकर दुःखी दरिद्रों को तीखे शब्द बोलते हैं, कभी-कभी उन्हें मारते भी हैं, पर वे कौन हैं? ये भिखारी जो रास्ते पर पड़े हैं। वे प्रभु का रूप हैं। काश! हम उनके चरणों में सिर झुकाएँ उनकी सेवा करें और उनका आर्शिवाद पाएँ।

सुबह लोकसारंगमुनि नींद से उठता है और श्री रंगनाथ के कहे अनुसार तिरूपन की तलाश में जाता है और उसे ढूँढ़ निकालता है। वह तिरूपन से कहता है, “ मेरे कंधों पर बैठ जाओ, तो मैं तुम्हें मंदिर ले जाऊँ।“ यह सुनकर तिरूपन चकित रह जाता है। वह कहता है, “मैं चण्डाल हूँ, मैं आपके कंधों पर कैसे बैठ सकता हूँ? मैंने कल बड़ा गुनाह किया है, उसकी मुझे माफी दो। मैं चण्डाल हूँ। मुझे तुम चाहे पत्थर मारो, पर मुझ अछूत के नापाक शरीर से अपने पाक शरीर को मत छुओ।“

लेकिन लोकसारंगमुनि तिरूपन को ज़बरदस्ती कंधे पर बिठाकर, सारा शहर घुमाता है। लोग घरों से निकल कर देखते हैं, कि कैसे मुनि इस अछूत को अपने कंधे पर बिठा लेता है। मुनि उसे शहर में घुमाकर मंदिर की परिक्रमा कराकर मंदिर में ले आता है। उस समय देखो,  तिरूपन की क्या दशा होती है? आज उसकी बरसों की तमन्ना पूरी हो गई। बरसों से वह सिसक-सिसक कर अपने प्रीतम को पुकार रहा था। तिरूपन रंगनाथ के चरणों में गिर पड़ता है। उसकी आँखों से आँसू बह निकलते हैं, आँसू रूकने का नाम ही नहीं लेते। आज उसके लिए मंदिर के दरवाजे खुल गए और उसके नसीब से दूसरे अछूत भी अब मंदिर में आ सकते थे।

अब तिरूपन को लोग संत मानने लगते हैं। वे उसके चरण छूने के लिए बेताब रहते,  और उसे अब सभी “मुनिवाहन” के नाम से पुकारने लगे।

अब तिरूपन अक्सर रंगनाथ के मंदिर में ही अपना समय व्यतीत करता। रंगनाथ के चरणों में बैठकर प्रेम भरे गीत गाता। उसके एक गीत का भाव अर्थ कुछ इस प्रकार है।

“की नहीं तपस्या,
ना ही किया दान,
किया तुमने मुझपर यह कितना बड़ा एहसान!
अपनी हाज़री में
तुमने मुझे बुलाया,
हुआ रहम तेरा,
जीवन सफल बनाया।
ओछे मेरे कपड़े,
ओछी मेरी ज़ात,
दरिद्रों का तू दाता,
गज़ब तेरी बात,
करमहीन हूँ मैं,
नहीं है ज्ञान,
है प्यास इतनी, हो जाऊँ कुर्बान।
ना कुछ मैं जानूँ,
ना कुछ भी पहचानूँ।
तेरा रहम रंगा!
ना और कुछ मैं जानूँ।
हो पतित पावन
हो तुम ही रखपाल,
करूणा के सागर
हो सद-सद दयाल।
तोरे दर का खादिम हूँ,
एक गुलाम,
कदमों में अंजली,
मेरे दिल का धाम!”

आओ! हम सब मिलकर इस संत के चरणों में सिर झुकाएँ, और इस बात को कभी ना भूलें कि दुखी-दरिद्र,  दीन जाति वाले सारे प्रभु के रूप हैं। उन सबके चरणों में सिर झुकाऊँ, उनका आशिर्वाद पाऊँ।

एक बात बताई गई है, श्री ईसा के शिष्य मारटीन के बारे में। सर्दी का मौसम था, वह रास्ते पर पैदल चला जा रहा था। उस समय बर्फ पड़ रही थी। उसने एक गर्म कपड़े का कोट पहन रखा था।

सामने एक भिखारी बैठा था, जिसके शरीर पर कपड़े नहीं थे। भिखारी ने मारटीन से कहा,  “मैं ठंड से काँप रहा हूँ,  मुझे इस सर्दी से बचाइए, मुझे कोई कपड़ा दीजिए।“ मारटीन अपने लंबे कोट की ओर देखता है, और कहता है, “इसका आधा मेरे लिए काफी है, बाकी क्यों न इस भिखारी को दे दूँ?” वह कोट के दो टुकड़े करता है। आधा कोट भिखारी के काँपते शरीर को लपेटता है, और आधा स्वंय पहनता है। लोग उसके ऊपर हँसते हैं, किन्तु मारटीन उनकी परवाह नहीं करता। उस रात वह एक सपना देखता है। सपने में वह देखता है, कि श्री ईसा ने आधा कोट पहन रखा है। श्री ईसा से वह पूछता है, “मेरे प्रभु! आज आपने आधा कोट क्यों पहना है?” श्री ईशा कहते हैं, “प्रिय! तुमने आधा कोट भिखारी को दिया, वह भिखारी मेरा ही रूप था, जो तुमने मुझे दिया, वही पहनकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।“

मेरे प्रिय जनों! बेशक, ये भिखारी,  सूरदास,  अपंग,  दुखी-दरिद्र प्रभु का रूप हैं। इस बात को समझ कर हम सब उन से अच्छा व्यवहार करें, सबसे मीठा बोलें।

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