शिक्षा का महत्व

शिक्षा एवं शिक्षित समाज

शिक्षा समाज की रीढ़ की हड्डी है। बिना शिक्षा के मनुष्य, नींव के बिना घर की तरह होता है। राष्ट्र अथवा समाज में शिक्षा को, व्यक्तित्व निर्माण तथा सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का मापदंड माना जाता है।

निरक्षरता किसी भी समाज के लिए अभिशाप है। शिक्षा हमें लक्ष्य निर्धारित करने, सफलता प्राप्त करने और चुनौतियों से सामना करके आगे बढ़ने में सहायता करती है। आत्मविश्वास विकसित करने में भी शिक्षा का विशेष योगदान है। शिक्षित समाज की कल्पना अनेक विद्वानों, शिक्षाविदों एवं समाज सुधारकों ने की है। उनमें से बहुतों ने अपने विचारों के अनुरूप शिक्षा की रूपरेखा तैयार करके समाज के समक्ष रखी। उनका मानना था कि विद्या एक ऐसा धन है, जिसे ना तो कोई चुरा सकता है, ना छीन सकता है और ही यह बांटने से बढ़ता है। बहुत से महापुरुषों ने तो अपना सम्पूर्ण जीवन ही इसी कार्य में लगा दिया।

शिक्षा का महत्व (Shiksha ka mhatv)

शिक्षा इंसान का पहला और सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का मानना था कि विश्व में शान्ति के लिए शिक्षा जरूरी है (If we want to reach real peace in this world, we should start educating children)। उनका मानना था कि शिक्षा के अभाव में एक स्वस्थ समाज का निर्माण असम्भव है। ऑस्ट्रेलिया की पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री जूलिया गिलार्ड ने कहा था, शिक्षा शान्ति, सुरक्षा और आर्थिक समृद्धि के लिए एक निवेश की तरह है, जिसे हमें दुनिया के सभी लोगों तक पहुंचाना चाहिए। जी.के. चेस्तेरसन का मानना था कि शिक्षा हमारे समाज की आत्मा है, जो कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है। महर्षि अरविन्द के अनुसार, शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य विकासशील आत्मा के सर्वांगीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शों के लिए प्रयोग हेतु सक्षम बनाना है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति की अन्तर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का सर्वोच्च विकास होना चाहिए। सी.एस. लेविस के अनुसार, सिद्धान्तों के बिना शिक्षा, एक मनुष्य को चालाक दैत्य बनाने जैसा है। आचार्य चाणक्य ने कहा था, शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है, शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है, शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और सौंदर्य दोनों ही कमजोर हैं, परन्तु जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सके, वही सच्ची शिक्षा होती है।

प्राचीन काल से ही भारत शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक रहा है। वैदिक युग से, गुरुकुल में शिक्षा का प्रचलन रहा है। अखण्ड भारत में विश्व के प्रथम विश्वविद्यालय तक्षशिला का निर्माण 6ठी से 7वीं सदी ईसा पूर्व के मध्य हुआ था जहां पर अध्ययन करने के लिए विश्व भर से विद्यार्थी आते थे। भारत में ही दुनिया के एक अन्य प्राचीन विश्वविद्यालय जिसे नालंदा विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है का निर्माण हुआ था। आधुनिक तकनीकी संसार में भी व्यक्तिगत उन्नति, सामाजिक स्वास्थ्य में सुधार, आर्थिक प्रगति, राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति, सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता और पर्यावरण की समस्याओं को सुलझाने में शिक्षा बहुत सहायक है।

शिक्षा का प्रचार-प्रसार (Shiksha ka prachar-prasar)

शिक्षा हमारे विचारों में परिपक्वता लाती है और बदलते परिवेश के साथ तालमेल बनाकर चलना सिखाती है। इसलिए विश्व के लगभग सभी देशों ने शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास किए हैं। भारत में शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए सरकार द्वारा अनेकों प्रयत्न समय-समय पर किए जा रहे हैं। भारत में अन्य देशों की तुलना में शिक्षित लोगों का प्रतिशत काफी कम है। इग्लैंड, रूस तथा जापान में लगभग शत-प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है। यूरोप एवं अमेरिका में साक्षरता का प्रतिशत 90 से 100 के बीच है, जबकि भारत में साक्षरता का प्रतिशत 79.38 है। भारत में शिक्षा प्रणाली को 3 भागों में बांटा गया है। पहला, प्राथमिक शिक्षा, दूसरा, माध्यमिक शिक्षा, तीसरा, उच्च माध्यमिक शिक्षा। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा किए गए प्रयत्नों के फलस्वरूप देश की 94 प्रतिशत आबादी को एक किलोमीटर के दायरे में कम से कम एक प्राथमिक विद्यालय और 84 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को तीन किलोमीटर के दायरे में एक उच्च प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध कराया गया है। उच्च शिक्षा की दृष्टि से भी देश प्रगति की ओर अग्रसर है।

आज-कल बड़े शहरों में प्ले स्कूल भी अधिक संख्या में खुलते जा रहे हैं, जहां छोटे-छोटे बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा दी जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में प्रतिमाह लगभग 10 से 12 नए स्कूल खोले जा रहे हैं एवं शिक्षा के स्तर में भी काफी उन्नति की जा रही है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा भी समय-समय पर शिक्षा नीति में संशोधन किया जा रहा है। कई प्राइवेट स्कूलों (गैर-सरकारी विद्यालयों) में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा दी जा रही है, ताकि विद्यार्थी विश्व के किसी भी देश में आगे की पढ़ाई जारी रख सके।

क्यों पथ-भ्रष्ट है आज की युवा पीढ़ी? (Kyun path-bhrasht hai aaj ki yuva pidhi?)

भारत में दूसरे देशों से ज्यादा युवा बसते हैं। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा का इतना प्रचार-प्रसार होने के बाद भी आज का विद्यार्थी क्यों पथ-भ्रष्ट है? एक सर्वेक्षण के अनुसार, नशा करने वाले युवाओं में अधिकांश पढ़े-लिखे होते हैं। विश्व में व्याप्त लगभग सभी नकारात्मक कार्यां जैसे आतंकवाद, भ्रष्टाचार, आत्महत्या, नशे का सेवन, देश विरोधी गतिविधियां आदि में पढ़े-लिखे युवाओं को अधिक संलग्न पाया गया है। निरन्तर नकारात्मक सोच से आज का युवा न सिर्फ अपने जीवन के स्वर्णिम पलों को खत्म कर रहा है, बल्कि अपने ऊंचे संस्कारों और देश एवं परिवार के प्रति अपने कर्त्तव्यों से बेमुख हो रहा है। युवाओं के पथ-भ्रष्ट होने के निम्नलिखित मुख्य कारण हैं;

घर-परिवार (Ghar-Parivar)

घर शिक्षा प्राप्त करने का पहला स्थान है। अभिभावक पहले शिक्षक होते हैं। शिक्षा का पहला पाठ घर पर विशेष रूप से मां से प्राप्त होता है। देखने में आता है कि आज अधिकांश घरों में आपसी तनाव एवं झगड़े होते रहते हैं। मां-बाप के मध्य होने वाले लड़ाई-झगड़े का बच्चों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अभिभावकों द्वारा, विशेष रूप से पिता द्वारा किए जा रहे नशे (शराब, सिगरेट, तम्बाकू) का बच्चे के मन में गहरा नकारात्मक असर होता है, जिस कारण बचपन से ही उसके मन में गलत विचारधारा पनपने लगती है, जो कि आगे चलकर उसका व्यक्तित्व बन जाती है। इसलिए अभिभावकों का यह परम कर्त्तव्य बनता है कि वे अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाएं, जिससे उन्हें अच्छे संस्कार मिले। अच्छे संस्कार होंगे, तो वे अच्छे और बुरे का फर्क जान पाएंगे। यदि घर में रोजाना अच्छे संस्कारों की बात होगी, तो बच्चे नैतिक मूल्य व संस्कारों के प्रति सजग रहेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शान्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था कि आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते पर अपनी आदतों को बदल सकते हैं और बदली हुई आदतें एक दिन आपका भविष्य बदल देंगी।

संगदोष (Sangdosh)

कहावत है कि जैसा संग वैसा रंग। ईश्वर ने मनुष्य को एक अलग ही शक्ति दी है, सोचने और समझने की शक्ति। परन्तु देखा गया है कि युवा अधिकतर गलत संगत की ओर सहज आकर्षित हो जाता है और उस कुसंग के रंग में रंगकर संस्कारों व नैतिकता को छोड़ संस्कार विहीन होने लग जाता है। ऐसे में वह समाज, परिवार, देश एवं अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं रह पाता और पथ-भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए अपने संग का चयन एवं सम्भाल करना यह प्रत्येक युवा की जिम्मेवारी है। कहा गया है कि संग तारे, कुसंग बोरे।

लक्ष्य विहीनता (Lakshya vihinta)

आज का युवा अपने लक्ष्य को निर्धारित करने में असक्षम है, अधिकतर युवा लक्ष्य विहीन हैं, जिसके कारण कठिन परिश्रम भी निरर्थक है, क्योंकि रास्ते से भटक कर कभी मंजिल को नहीं पा सकते। अपना भविष्य निर्धारित करने में तथा अपना प्रेरणास्त्रोत चयन करने में असक्षम हैं, इसलिए उनका मन स्थिर नहीं रह पाता। युवा मन बाहरी संसार की चमक-दमक से प्रभावित होकर उस ओर आकर्षित होता है तथा ऐसे मार्ग पर चलने वालों को ही अपना प्रेरणास्त्रोत बना लेता है। सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाले बनावटी नायक (हीरो), आतंकवादी, उग्रवादी, नक्सलवादी को ही असल ज़िंदगी का हीरो मानकर उनका अनुसरण करके अपने को उस मार्ग की ओर अग्रसर कर अपना सम्पूर्ण जीवन अंधकार में डाल रहा है। बाहरी दिखावटों, बनावटी चमक-दमक तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर उसकी हिम्मत, जोश, दृढ़ संकल्प, जुनून, एकाग्रता, इच्छाशक्ति और धैर्यता जैसे गुण वासना तथा अश्लीलता, नशा, हिंसा तथा लोभ-लालच के अधीन होते जा रहे हैं। इसलिए युवाओं को अपना भविष्य, अपने जीवन का लक्ष्य एवं अपना प्रेरणास्त्रोत चयन करने में सावधानी बरतनी चाहिए एवं वास्तविक जीवन के हीरो अर्थात् चरित्रवान और कर्मठ को ही अपना आदर्श बनाना चाहिए।

सुगम मार्ग की तलाश (Sugam marg ki talash)

आज जब हम अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं को भूल कर भौतिकवादी सभ्यता का अंधानुकरण कर रहे हैं, ऐसे में ज्यादातर युवा सफलता पाने के लिए सुगम मार्ग तलाशते हैं, भले ही वो मार्ग अनैतिक, अराजक या अवैध हो। अधीरता अनैतिकता की जननी है। धैर्य की कमी के कारण कम परिश्रम में अधिक सफलता जल्द से जल्द पाने की चाह में शॉर्टकट मार्ग पर अग्रिसत हो जाता है। अधीरता के कारण, उसके द्वारा किया गया सुगम मार्ग का चयन अक्सर उसे अपराध के मार्ग पर ले जाता है, इसलिए युवाओं को चाहिए कि वे अपना उज्जवल भविष्य चयन करने में मेहनत और लगन का सहारा लें, न कि अनैतिक सुगम मार्ग का।

नैतिक मूल्यों का पतन (Naitik mulyon ka patan)

मनुष्य के अन्दर मानवीय मूल्यों का विकास करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। वो शिक्षा अनमोल है, जो मानवीय मूल्यों को महत्व दे। परन्तु आज की इस भागती-दौड़ती ज़िंदगी में शिक्षा भी उसी रूप में परिवर्तित हो चुकी है। नैतिक शिक्षा प्रायः लोप सी हो गई है। आज शिक्षा एक व्यापार बनकर रह गई है। बच्चों के बाल मन में असुरक्षा, प्रतिस्पर्धा जैसे भाव उत्पन्न किए जा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में नैतिक शिक्षा का कोई स्थान ही नहीं रहा, जबकि आज के भौतिकवादी समाज में नैतिक शिक्षा बहुत ही ज़रूरी है। नैतिक शिक्षा से ही हमारे अंदर नैतिक गुणों का उत्थान होगा। व्यक्ति का बौद्धिक और चारित्रिक उत्थान केवल नैतिक शिक्षा से ही सम्भव है। आज शिक्षित युवाओं में बढ़ती अपराध प्रवृत्ति का मुख कारण है नैतिक शिक्षा का अभाव। शिक्षा और नैतिक शिक्षा, इन दोनों का सामंजस्य युवाओं के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यन्त जरूरी है। शिक्षा यदि सफलता की चाबी है, तो नैतिक शिक्षा सफलता की सीढ़ी है। एक के अभाव में दूसरे का पतन निश्चित है। इसलिए मां-बाप को घर में और शिक्षकों को विद्यालयों में, बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ ज़रूर पढ़ाना चाहिए।

जीवन भी एक पाठशाला है (Jivan bhi ek pathshala hai)

स्कूल-कॉलेज से हम किताबी ज्ञान, लिपियों का ज्ञान पाते हैं, घर-परिवार से हम अच्छे-बुरे संस्कारों का ज्ञान पाते हैं, लेकिन इन सबसे अलग है जीवन रूपी पाठशाला। विपरित परिस्थितियों में खुद को समर्थ बनाए रखना, मुश्किलों से लड़ना और जीत पाना, विपदा से घबराए बिना निरंतर आगे बढ़ना, ये सब हमें जीवन रूपी पाठशाला से सीखने को मिलता है। जैसे विद्यालय में एक-एक कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं और उच्च शिक्षा को प्राप्त करते हैं, ठीक वैसे ही जीवन में आने वाली प्रत्येक बाधाओं को एक-एक कर पार करके हम स्वंय को उत्तम बना पाते हैं। लिपियों का ज्ञान हमें रोजगार दिलाने में सहायता करता है, परन्तु जीवन की पाठशाला से मिली शिक्षा उम्र भर हमें मदद करती है।

पुराने जमाने में लिपियों का ज्ञान बहुत कम लोगों को था, परन्तु वे साधरण ज्ञान से भरपूर थे। शिक्षा का अनुमान व्यक्ति के आचरण-व्यवहार एवं चाल-चलन से लगाया जाता था। उत्तम व्यवहार वाले व्यक्ति को शिष्ट या शिक्षित समझा जाता था, भले ही उसे लिपियों का ज्ञान न भी हो। लोग कहते थे कि फलां व्यक्ति बहुत ही शिक्षित लगता है। इसके विपरित, उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति का यदि आचरण-व्यवहार ठीक न हो तो लोग उसे अशिक्षित मानते थे। उसे पढ़ा-लिखा गंवार कहा जाता था अर्थात पढ़-लिख के भी वो अनपढ़ जैसा ही है। अतः वास्तविक शिक्षा वो है, जो व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करे क्योंकि चरित्रवान व्यक्ति ही एक अच्छे, सभ्य और शिक्षित समाज का निर्माण कर सकता है, विश्व में शान्ति और सद्भावना स्थापन कर सकता है। चरित्र निर्माण से ही बेहतर विश्व का निर्माण हो सकता है, इसलिए नैतिक शिक्षा और चरित्र निर्माण पर विशेष ध्यान आवश्यक है।

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