आत्म-जागरूकता

साक्षी होने की कला – अपने दुख को ध्यान के क्षणों में बदलो – भाग 2

जो आदमी अपने दुख के प्रति सचेतन बोध से भरता है, कांशसनेस से भरता है, रिमेंबरिंग से भरता है, वह अनुभव करता है कि दुख कहीं और है, मैं कहीं और हूं।

तो जब आप अपने दुख को आंख बंद करके भीतर से खोजने की कोशिश करेंगे। और ध्यान रहे, हमने शरीर को, अपने शरीर को भी सदा बाहर से ही जाना है, भीतर से नहीं जाना है।

अगर हम अपने शरीर को भी जानते हैं, तो ऐसा जैसे दूसरे जानते हैं। अगर मैंने इस हाथ को भी देखा है कभी, तो बाहर से ही देखा है। इस हाथ का भीतरी हिस्सा भी है। जैसे इस मकान को मैं बाहर से देखकर चला जाऊं, तो यह मकान का बाहरी हिस्सा है। इस मकान की दीवालों का भीतरी हिस्सा भी है।

दर्द की घटना घटती है भीतरी हिस्सों पर। दर्द का बिंदु होता है भीतरी हिस्सों पर। और दर्द के फैलाव का विस्तार होता है बाहरी हिस्सों पर। दर्द की ज्योति तो होती है भीतर और दर्द का प्रकाश होता है बाहर।

चूंकि हम अपने शरीर को बाहर से ही देखते रहे हैं, इसलिए बहुत फैला हुआ मालूम पड़ता है। शरीर को भीतर से देखने की चेष्टा बड़ी अदभुत बात है।

आंख बंद कर लें और शरीर को भीतर से फील और अहसास करने की कोशिश करें कि शरीर भीतर से कैसा है।

इस शरीर की भीतरी दीवाल भी है और इस शरीर का भीतरी खोल भी है। इस शरीर का भीतरी छोर भी है। उस भीतरी छोर को आंख बंद करके निश्चित ही अनुभव किया जा सकता है।

आपने अपने हाथ को उठते हुए देखा है। आंख बंद करके हाथ को नीचे से ऊपर तक ले जाएं, तब आप हाथ के भीतर जो उठने की क्रिया हो रही है, उसको देख पाएंगे। आपने भूख को बाहर से अनुभव किया है। आंख बंद कर लें और भूख को भीतर से अनुभव करें, तब आप उसे पहली दफे भीतर से पकड़ पाएंगे।

शरीर के दुख को भीतर से पकड़ते ही दो घटनाएं घटती हैं।

एक तो जितना बड़ा मालूम पड़ता था, उतना बड़ा नहीं रह जाता। तत्काल छोटे-से बिंदु पर केंद्रित हो जाता है। और जितने जोर से इस बिंदु पर आप एकाग्रता करेंगे, उतना ही पाएंगे–यह बिंदु और छोटा होता जा रहा है, और छोटा होता जा रहा है, और छोटा होता जा रहा है। और एक बड़े आश्चर्य की घटना घटती है, जब बिंदु बहुत छोटा हो जाता है, और अचानक आप पाते हैं कि कभी वह खो गया, कभी दिखाई पड़ने लगा, कभी खो गया, कभी दिखाई पड़ने लगा। बीच में गैप पड़ने शुरू हो जाते हैं। और जब वह खो जाता है, तब आप बहुत हैरान होते हैं कि दर्द अब कहां है। वह कई दफा मिस हो जाता है। वह इतना छोटा हो जाता है बिंदु कि कई बार चेतना जब उसे खोजती है, तो पाती है कि नहीं है।

जैसे मूर्च्छा में दर्द फैलता है, वैसे चेतना में दर्द सिकुड़कर छोटा हो जाता है।

एक तो यह अनुभव होगा कि दर्द हमने जितने अनुभव किए, हमने जितने दुख भोगे, उतने दुख थे नहीं। जितने दुख हमने भोगे हैं, उतने दुख थे नहीं।

हमने दुखों को बहुत बड़ा करके भोगा है।

ठीक यही बात सुख के संबंध में भी सच है कि जितने सुख हमने भोगे हैं, वे भी थे नहीं। सुखों को भी हमने बहुत बड़ा करके भोगा है। अगर हम सुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो हम पाएंगे कि वह भी बहुत छोटा हो जाता है। अगर हम दुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो पाएंगे कि वह भी बहुत छोटा हो जाता है।

जितना होश हो, उतना सुख और दुख सिकुड़कर बहुत छोटे हो जाते हैं। इतने छोटे हो जाते हैं कि बहुत गहरे अर्थों में मीनिंगलेस हो जाते हैं।

असल में, उनका अर्थ उनके विस्तार में है। वह पूरी जिंदगी को घेरे हुए मालूम पड़ते हैं; लेकिन जब बहुत बोधपूर्वक उनको देखा जाए, तो छोटे होते-होते इतने अर्थहीन हो जाते हैं कि जिंदगी से उनका कुछ लेना-देना नहीं रह जाता। और दूसरी जो घटना घटेगी वह यह कि जब आप दुख को बहुत गौर से देखेंगेतो आपके और दुख के बीच एक फासला पैदा हो जाएगा, एक डिस्टेंस पैदा हो जाएगा। असल में, किसी भी चीज को हम देखें, तो फासला पैदा होता है। दर्शन फासला है। किसी भी चीज को हम देखें, तो फासला बनना तत्काल शुरू हो जाता है।

अगर आप अपने दुख को गौर से देखेंगे, तो आप पाएंगे, आप अलग हैं और दुख अलग है। क्योंकि सिर्फ वही देखा जा सकता है जो अलग हो।

वह तो देखा ही नहीं जा सकता जो एक हो। तो जो आदमी अपने दुख के प्रति सचेतन बोध से भरता है, कांशसनेस से भरता है, रिमेंबरिंग से भरता है, वह अनुभव करता है कि दुख कहीं और है, मैं कहीं और हूं। और जिस दिन यह पता चलता है कि दुख कहीं और, और मैं कहीं और, मैं जान रहा हूं और दुख कहीं और घटित हो रहा है, वैसे ही दुख की मूर्च्छा टूट जाती है।

और जैसे ही यह पता चलता है कि शरीर के दुख कहीं और घटित होते हैं, सुख भी कहीं और घटित होते हैं, हम सिर्फ जानने वाले हैं, वैसे ही शरीर के प्रति हमारा जो तादात्म्य, जो आइडेंटिटी है, वह टूट जाती है। तब हम जानते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं।”

ओशो, मैं मृत्यु सिखाता हूं, टॉक्स #12 – साक्षी बनना से उद्धृत

ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।

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