राजा का‌ गुरु

राजा का‌ गुरु

वह इंसान भाग्यशाली है जिसके चित्त में हरी का ध्यान है। “जैसा ध्यान वैसा इंसान।”

श्री मद्भगवद गीता के नौवें अध्याय के अंतिम श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं। “मन्मना भव!” हे अर्जुन! तुम अपने मन को नित्य मेरे चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझ में पूर्ण रुप से विलीन होने पर, तुम निश्चित ही मुझको प्राप्त कर पाओगे। प्रिय अर्जुन! तुम अपने मन को मेरी ओर मोड़ लो। इस समय तुम्हारा मन दुनिया में अटका हुआ है। इसलिए तुम्हारा मन चंचल है, और चंचल मन में हमेशा दुख समाया जाता है।

मैंने उत्तर दिया। “अपना मन प्रभु की ओर मोड़ों। जब मन प्रभु के चरणों में लगा रहेगा तो मन की चंचलता दूर हो जाएगी। सारे दुख दर्द गायब हो जाएंगे!

वह इंसान भाग्यशाली है जिसके चित्त में हरी का ध्यान है। “जैसा ध्यान वैसा इंसान।” जैसे जैसे हम प्रभु का अधिक ध्यान करते हैं वैसे वैसे हमारे मन की चंचलता दूर होने लगती है और धीरे धीरे हम उस मंजिल पर पहुंच जाते हैं, जिसे कहते हैं परमानंद।

उस मंजिल पर विष्णु चित्त पहुंच चुका था, जो था नौंवा आलवर। उसके चित्त में सदा विष्णु का वास रहता था। उठते-बैठते वो विष्णु को याद करता, काम-काज करते हुए वह विष्णु को याद करता। हर जगह, हर स्थान पर उसके ह्रदय में श्री विष्णु बसते थे। उसके पिता का नाम मुकदंचारी था और माता का नाम पद्मा था। वे दोनों प्रभु को पुकारते थे, हे प्रभु! एक ऐसा पुत्र प्रदान करो, जो तुम्हारा स्वरूप हो!”

कभी आप में से किसी माता-पिता के ह्रदय से ऐसी पुकार निकली है?

जहाँ चंचलता है, वहाँ दुख है। यदि मन स्थिर नहीं हुआ है तो इंसान को सच्चा सुख नहीं मिल सकता।

कुछ दिन पहले मुझे लंदन से एक पत्र आया। पत्र एक करोड़पति ने लिखा था। पत्र में उसने लिखा, मैं बहुत दुखी हूं, कोई दिन ऐसा नहीं जब मेरे मन में आत्महत्या करने का विचार न आया हो। यह अमीर जिसके घर में नौकर-चाकर, मोटर-गाड़ियां हर प्रकार की सुख-सुविधाएं थीं। वह लिखता है, हर दिन मेरे मन में आत्महत्या करने का विचार आता है, मैं क्या करूं?

जैसे जानवर बच्चे पैदा करते हैं, वैसे इंसान भी बच्चे पैदा कर रहा है। तब अपने बच्चों की स्थूल बुद्धि देखकर आश्चर्य होता है। क्या हम अपने बच्चों को प्रभु संतों और सत्तपुरुषों संबंधी बातें बताते हैं या फिर सिर्फ दुनिया की व्यर्थ बातें ही बताते हैं? हाँ, तो मुकुन्दाचारी और पद्मा बार-बार प्रभु से प्रार्थना करते हैं। हे प्रभु! कोई ऐसा पुत्र दो, जिसमें तुम्हारी छवि हो। आखिर उनके यहां एक पुत्र का जन्म होता है। बचपन से ही बालक बड़ा निराला था। उसकी नजरें हर समय मानों किसी को तलाशती रहती थीं। अपना ज्यादा समय वो मंदिर में शांति व ध्यान में बिताता था। बचपन से ही उसे श्री विष्णु की ओर खिंचाव था। वह मंदिर में बैठकर भी श्री विष्णु को निहारता रहता। हर पल उसके होंठों पर एक ही मंत्र रहता।

“ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!”

कभी किसी पेड़ के नीचे बैठकर इस मंत्र की धुनी लगाता, कभी बगीचे के किसी कोने में धुनी लगाते हुए बेसुध हो जाता। धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगा। उसके घर में एक सुंदर बगीचा था। वह उस बगीचे की देखभाल करता। बगीचे के फूलों से माला बनाकर, ठाकुरों को पहनाकर खुश होता‌। उसने भागवत पुराण का अभ्यास किया। उसे भागवत पुराण से बहुत लगाव था। वह हर रोज शाम के समय बगीचे में सत्संग करता। लोग उत्साह से,

“ओह नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!”

का मंत्र गाते थे। फिर कीर्तन के बाद वह उन्हें भागवत की कथाएं सुनाता था।

मेरे प्यारे भाइयों और बहनों!

उन दिनों मदुराई देश का राजा था वल्लभ देव! एक दिन उसने एक ब्राह्मण को जाते हुए देखा, जिस के मुख पर अनोखा तेज चमक रहा था। राजा ने उस ब्राह्मण को रोककर उससे कहा है।

“महात्मन्! मैं चाहता हूँ, आप मुझे कोई शिक्षा दें, कोई उपदेश दें।”

ब्राह्मण राजा से कहता है, “राजन! ये थोड़े शब्द मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान से सुनना। सावन के चार महीने होते हैं। पर उन चार महीनों के लिए बाकी आठ महीने तैयारी की जाती है। जैसे रात को जिन चीजों की जरूरत होती है, उसकी तैयारी दिन में की जाती है। बुढ़ापे के लिए जवानी में तैयारी करनी पड़ती है। वैसे ही मौत के लिए अभी तैयारी करनी है।” ये शब्द कहकर ब्राह्मण गायब हो जाता है। यह बात राजा के ह्रदय में उतर जाती है। वह स्वयं से कहता है, “बेशक, अंतिम यात्रा पर मुझे भी चलना है। किन्तु मैंने तो उसकी कोई तैयारी नहीं की है।”

गुरुदेव साधु वासवानी जी अपनी पवित्र वाणी में कहते हैं!!

 “मौत आ रही है मरना जरूर,
सारी दुनिया का है यही दस्तूर!”

जो पैदा हुआ है, उसको मरना जरूर है। उस अंतिम यात्रा की तैयारी अभी करनी है। राजा सोचता है, मेरा फर्ज है कि मैं भी तैयारी करूँ। पर कैसे करूँ? राजा अपने राज पुरोहित को बुलाकर कहता है। “मुझे एक ब्राह्मण से यह शिक्षा मिली है। अब मैं चाहता हूं कि मैं अंतिम यात्रा के लिए कुछ तैयारी करूँ। पता नहीं कब मौत आ जाए।

Return ticket तो हम लेकर आए हैं। टिकट पर तारीख लिखी हुई है, पर हम उस तारीख को नहीं पढ़ पाते। वह तारीख आयेगी, तब जाना तो पड़ेगा। ऐसे विचार राजा के मन में आने लगे। वह कहता है, “मुझे उस सफर की तैयारी करनी चाहिए। कोई मिले, जो मुझे बताए कि मुझे कौन सी और कैसी तैयारी करनी चाहिए।

“राजपुरोहित राजा को सलाह देता है कि एक सम्मेलन बुलाया जाए, अलग-अलग धर्मों व संस्थाओं के प्रतिनिधियों को बुलाया जाए और उसने सलाह-मशवरा किया जाए, कि अंतिम यात्रा के लिए कौन सी तैयारी करनी चाहिए।”

राजा को यह सलाह पसंद आती है। अब शहर में ढिंढोरा पिटवाया जाता है कि, “राजा के दरबार में सम्मेलन होगा, जहां अलग-अलग धर्मों और संस्थाओं के प्रतिनिधियों को आना होगा, क्योंकि राजा अपने लिए गुरु का चुनाव करना चाहते हैं।”

महल के आंगन में सम्मेलन के लिए शाही मंड़प लगाया जाता है। उसमें बड़ा चबूतरा बनाया जाता है। चबूतरे के बीच में छत से एक थैली लटकाई जाती है जो सोने की मुहरों से भरी थी। राजा कहते हैं, “यह थैली उस शख़्स को दी जाएगी, जिसके विचार ह्रदय की गहराई को छू लेंगे।” सम्मेलन में कितने ही धर्मों के– विष्णु धर्म के, शिव धर्म के, जैन धर्म के, बौद्ध धर्म के ज्ञाता आते हैं। कितने ही विद्वान, दार्शनिक इकट्ठे हो जाते हैं। हर एक यही समझ रहा था कि उसके विचार राजा को पसंद आएँगे। विद्वान उठकर आपस में बहस करते हैं, वे विवाद करते हैं, पर राजा के ह्रदय पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। इस तरह कई दिन बीत गए राजा निराश हो जाता है।

उधर विष्णु चित्त अपने बगीचे में बैठा काम कर रहा था। उसके चित्त में चौबीस घंटे आठों पहर विष्णु का ध्यान है। विष्णु चित्त जो भी करता, उसे श्री विष्णु के चरणों में अर्पण कर देता। श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, पंत्र पुष्पं फलं तोयं, यो मे भक्तया प्रयच्छति तदह भक्त्युपहलमश्नामि प्रयतात्मन:!

“यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं।” बगीचे से फूल चुनते माला बनाते समय विष्णु चित्त की आँखें चमकती रहतीं, और उसके ह्रदय में यही भावना रहती।

“श्री कृष्ण अर्पणम्!
श्री कृष्ण अर्पणम्!”

शाम को बगीचे में कीर्त्तन करता था।

 “ओम नमो नारायणाय!
“ओम नमो नारायणाय!

कीर्तन करते समय वह आँखों से आँसू बहाता और कई बार वह अपनी हस्ती भुलाकर, मस्ती में आ जाता था। देखिए! फिर क्या होता है! एक बार रात को सत्संग करने के बाद जब वह सोने जाता है तो वह एक सपना देखता है। सपने में प्रभु उसके पास आते हैं और कहते हैं, “उठ जाग! उठ जाग!” चल मदुराई में!” विष्णु चित्त आश्चर्य में पड़ जाता है। कहता है, “प्रभु जैसी आपकी आज्ञा!” 

“मदुराई के राजा के पास जाओ। वहां सम्मेलन चल रहा है। तुम वहां जाकर अपनी शिक्षा दो। राजा को भक्ति मार्ग, प्रेम मार्ग, शरणं मार्ग बताओ। राजा के ह्रदय पर जादू लगाओ, जादू लगाओ!”

विष्णु चित्त कहता है, “प्रभु! मैं तो एक देहाती गँवार हूं। उस सम्मेलन में बड़े-बड़े विद्वान,  दार्शनिक और धर्म ज्ञाता होंगे। उनके आगे मैं क्या कह पाऊंगा?” “पर उसे विश्वास है जो कुछ कहोगे वह आप ही कहोगे, मैं तो आपाका साधन मात्र हूं।”

सवेरे विष्णु चित्त उठता है। उसे अपना सपना याद था। आदेश के अनुसार वह मदुराई की ओर चल पड़ता है और सम्मेलन में आ पहुंचता है। यह सीधा-सीदा, विनम्र देहाती, उठकर खड़ा हो जाता है। उसकी ओर देखते हैं, और सोचते हैं, “यह गाँव वाला क्या बताएगा? हर विद्वान उससे सवाल पूछता है। वह हर सवाल का उत्तर नम्रता से देता है। मानो प्रभु ही उसके मुख से बोल रहे हों। सारे विद्वान चुप हो जाते हैं। विष्णु चित्त के शब्दों का गहरा प्रभाव राजा के दिल पर होता है। राजा कहता है, “तुम्हारे शब्द सीधे-सादे हैं, नम्र है किन्तु ये मेरे दिल को छू गये हैं। इन विद्वानों के कठिन शब्दों, बड़े शब्दों का मेरे दिल पर कोई असर नहीं हुआ। तुम्हारे शब्द मेरे ह्दय की गहराई में उतर गये हैं। तुम ही मुझे उपदेश दो”

विष्णु चित्त को अब लोग पेरी आलवर कहकर पुकारने लगे। ‘पेरी’ यानी “बड़ा” या “मुख्य”। सभी आलवरों में मुख्य आलवर, विष्णु चित्त राजा को उपदेश देता है। कहता है, “राजन! पहले तो इस बात को कभी मत भूलना, कि हरी से बड़ा कोई भी नहीं है।

He is the highest truth.
हरि है दयालु, वह है कृपालु,

वह है रक्षक। हरि के चरणों में पनाह लो। “सभी धर्मों का करके त्याग अर्जुन! तुम मेरी शरण में आओ, पापों के बंधन तोड़ों, आकर मुक्ति पाओ।” सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रजं अहंत्वा सर्वपापेभ्यो मोर्क्षायष्यामी मा शुच। विष्णु चित्त कहता है। “राजन! यदि आपको मुक्ति चाहिए, तो सारी बातें भूल कर प्रभु की शरण लो। उसके चरणों में पनाह लो। प्रभु दयालु है, कृपालु है। जो जो भी उस के चरणों में पनाह लेता है। उसे वह छोड़ता नहीं। हरि की शरण लो। उसकी कृपा के लिए पुकारो और बार-बार यह मंत्र उच्चारो।

“ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!

नैनों से नीर बहाओ, तो ही हरि माया के चक्र से हरी तुम्हें छुड़ा देंगे। उसकी कृपा से ही तुम माया पर विजय पा सकोगे। हरि कहीं दूर नहीं है। वे एक-एक दिल में बसते हैं। कीर्तन करो, नाम उच्चारो, प्रभु के चरण कमलों का सहारा लो।” थोड़े शब्द, कम शब्द, सीधे-सादे शब्द, पर इन शब्दों का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सारे लोग मिलकर एक ही आवाज में मंत्र का जाप करते हैं। 

 “ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!”

सारा मडंप इस मंत्र से गूंज उठता है और अचानक मुहरों की थैली खुल जाती है। सारी मुहरें विष्णु चित्त के चरणों में आ पड़ती हैं। लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। सारा मडंप तालियों से गूंज उठता है, और राजा उसके चरणों में गिर पड़ता है। वह कहता है, “अब आप मेरे गुरु हैं, कृपया करके मुझे स्वीकार करें।” 

अगले दिन राजा विष्णु चित्त को हाथी पर बिठाकर पूरे सम्मान से शाही जुलूस के साथ सारे शहर में ले जाता है, ताकि लोगों को पता चले, कि राजा ने किसे अपना गुरु बनाया है। जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता है, तो विष्णु चित्त आसमान की ओर देखता है और उसे दर्शन मिलता है। दर्शन में नारायण को वह गरूड़ पर बैठा देखता है। नारायण के साथ देवी लक्ष्मी बैठी है। उस समय विष्णु चित्त के मुख से वाणी निकलती है। वह अपने गीत में, यह पेरी आलवर, आलवरों में मुख्य आलवर क्या-क्या कहते हैं?

“युग युग जीयो मेरे परम प्यारे,
तेरे चरण-कमल मोरे जीवन आधारे,
युग-युग जीअे लक्ष्मी रानी
युग-युग जीअे तेरी मधुर वाणी।
युग-युग आप अपना चक्र चलायें,
युग-युग अपना शंख बजायें।
तेरे चरणों की करें हम पूजा,
तेरे बिन हम ना जाने दूजा।
तेरे सहस्त्र नाम हम बार-बार उच्चारें,
“ओम नमो नारायणाय”
प्यास में पुकारें!
तेरी आज्ञा में सदा हम चलें,
एक दिन आलवर तुझे मिलें!
जन्म-जन्म से हैं तेरे दास,
काश! अंजली को बिठाए चरणों के पास!
ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!
ओम नमो नारायणाय!”

इस मंत्र को जपने से मन को कितनी शांति मिलती है। आज यह मंत्र अपने मन में बसा लें।

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