किसी कार्य को पूर्ण करने या परिणाम प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न किए जाने चाहिए उन को हम पुरुषार्थ कहते हैं। प्रयत्न तो सभी करते हैं लेकिन क्या और कैसे प्रयत्न किया जाना चाहिए, इसकी समझ सबकी अलग-अलग होती है। अल्पज्ञतानुसार किए गए प्रयत्न, चेष्टा व प्रयास मात्र रह जाते हैं, पुरुषार्थ नहीं बन पाते। अल्पज्ञता की जगह स्वार्थ या मनोविकारों के वश होकर किए गए प्रयत्न कुचेष्टा या कुप्रयास बन जाते हैं।
पुरुषार्थ शब्द का अर्थ
पुरुषार्थ शब्द पुरुष और अर्थ इन दो शब्दों के मेल से बना हुआ है। इस शरीर में आत्मा ही वह पुरुष है जो परिश्रम करती है, कर्म करती है और अर्थ शब्द का मतलब है ‘के लिए’। इस प्रकार पुरुषार्थ शब्द का मतलब है कि आत्मा, आत्मा के लिए जो करती है। पुरुषार्थ उस कर्तव्य को ही कहेंगे जो पुरुषार्थ करने वाले पुरुष यानी आत्मा को उसकी सर्वश्रेष्ठ दशा की ओर अग्रसर कर दे। आत्मा की सर्वश्रेष्ठ दशा क्या है? आत्मा के जो मूल गुण और शक्तियां हैं उन से आत्मा के विचारों और संस्कारों के स्तर पर भरपूर हो जाने की अवस्था को आत्मा की श्रेष्ठ दशा कहते हैं। यह उच्च दशा आत्मा में देवत्व को जगाती है, उसकी योग्यताओं और प्रतिभाओं का संपूर्ण विकास कराती है, आत्मा अपनी मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करने में सक्षम हो जाती है, जिसका ही प्रतिफल आत्मा सर्वश्रेष्ठ भाग्य के रुप में प्राप्त करती है। आत्मा की इस स्थिति को सर्वगुण संपन्न, 16 कला संपूर्ण अर्थात देवी-देवता कहा जाता है। ऐसे व्यक्तित्व के धनी देवात्माओं का समाज ही इस सृष्टि पर वास्तव में स्वर्ग होता है। मनुष्य आत्मा द्वारा ऐसे उत्कृष्ट जीवन और समाज की रचना रचने का कर्म ही उसका श्रेष्ठ पुरुषार्थ है।
भ्रामक (अवास्तविक) पुरुषार्थ किसे कहेंगे?
अब आत्म-कल्याण का श्रेष्ठ पुरुषार्थ तो यह हुआ, फिर आंशिक (अधूरा) अथवा भ्रामक (अवास्तविक) पुरुषार्थ किसे कहेंगे? इस संदर्भ में एक हास्यास्पद कहानी है कि एक जंगल में आग लगी तो सारे के सारे जानवर तालाब की ओर भागे और वहां से मुंह में पानी ला-ला कर आग पर डालने लगे। पर एक बंदर पेड़ पर ही उछल-कूद करता रहा। सब की कोशिशों से जब आग बुझ गई तो सब ने बंदर से पूछा कि हम सब इतना कुछ कर रहे थे, तुमने कुछ क्यों नहीं किया? बंदर बोला, अरे, मैं भी तो एक सेकंड भी चैन से नहीं बैठा, लगातार एक डाल से दूसरी डाल, दूसरी डाल से तीसरी डाल पर कूदता रहा और चारों ओर देखता रहा। तो देखिए, बंदर के लिए उछल-कूद मचाना ही उसका पुरुषार्थ था। ऐसे ही कई मनुष्य भी समस्याएं आने पर शोर मचाएंगे, रोएंगे-पीटेंगे, लोगों पर दोषारोपण करेंगे, भाग्य और भगवान को कोसेंगे, अंधविश्वासों में पड़ेंगे और इसी को अपना पुरुषार्थ मान लेंगे पर यह नहीं समझेंगे कि केवल शक्ति खर्च करने का नाम पुरुषार्थ नहीं है, समय और शक्ति को आंतरिक सुख-शांति और उन्नति की दिशा में सफल करना ही पुरुषार्थ कहलाता है।
हमारे अल्पज्ञ स्वभाव में निहित आसक्तियां, अवगुण और स्वार्थ की कमजोरियां बड़ी सफाई से हमारे पुरुषार्थ की दिशा बदल देती हैं, हमें पता भी नहीं चलता कि कहां हम अनर्थ की तरफ चलने लगे। अर्थ और अनर्थ में, बुद्ध और बुद्धू में एक मात्रा का ही फर्क होता है। कमजोरियों से उपजी भ्रांतियों को ‘माया’ की संज्ञा दी गई है जिसका अर्थ होता है कोई छल या धोखा, जो सच जैसा प्रतीत तो होता है लेकिन होता झूठ ही है। पर आत्मा उस झूठ को सच मानकर, मृगतृष्णा में सीता की तरह लकीर पार कर लेती है और बेबस हो जाती है।
दिशा परिवर्तन के कुछ व्यवहारिक लक्षण
सच्चे पुरुषार्थ की दिशा परिवर्तन के कुछ व्यवहारिक लक्षण बड़े सामान्य हैं जो आसानी से हमारे आसपास हर क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। यदि हम आध्यात्मिक मार्ग के उदाहरण लें तो वे इस प्रकार हो सकते हैं कि जैसे- सत्य के पथ पर चलने से शुरुआत करना और बाद में सत्ता के पीछे भागने लगना। स्वतंत्रता के मायने मनमौजीपन समझ लेना। अपने लिए अनुशासन को बंधन मानकर तोड़ना और दूसरों पर अनुशासन या प्रशासन के नाम पर शासन करना। तृष्णा त्याग कर संतुष्ट होने की कोशिश करना। ज्ञान से अंहकार को जीतने का लक्ष्य रखकर फिर खुद ही ज्ञानी और बुद्धिमान होने का ऐसा अंहकार पाल लेना कि जो दूसरों की बात का कोई महत्व ही ना रहे। पुराने प्रतिस्पर्धी छोड़े, नई प्रतिस्पर्धाएं रच लेना। अपने आचरण पर बारीक नजर रखने के बजाए दूसरों के चाल-चलन और गलतियों पर गहन चर्चा को महत्वपूर्ण चिंतन समझने लगना। सूझबूझ से संगठन की समस्याओं को हल्का करने में सहयोग के स्थान पर समस्याओं का वर्णन करना जायज मानने लगना। अपनी भूमिका बेहतर निभाने की जगह दूसरों पर दोषारोपण करना ही अपनी जिम्मेदारी समझने लगना। सेवा के पथ पर शुरु हुए, नाम भी सेवा का रहा और धीरे-धीरे भाव मालिक होने का आ जाए इत्यादि-इत्यादि। इसे भी पुरुषार्थ समझकर ज्यादा शिद्दत से किया जाता है लेकिन इस शिद्दत में मुद्दत बीत जाने पर भी बरकत नहीं होती केवल व्यर्थ हरकत होती रहती है।
सही पुरुषार्थ का आधार है श्रीमत
ज्ञान सागर परमात्मा का मार्गदर्शन ही सही पुरुषार्थ का आधार होता है जिसे श्रीमत कहा जाता है। मनुष्य की भावना और नियत यदि सच्ची होती है तो यथाशक्ति और यथाबुद्धि किए गए अच्छे प्रयास भी संसार में कई महान परिवर्तन लाते हैं और स्वयं भगवान को भी उन्हें फल देना पड़ता है। उनकी लगन उन्हें वास्तविक पुरुषार्थ के द्वार तक भी ला सकती है लेकिन यदि सत्य की पहचान होते भी मनमानी की जाए, व्यक्तिगत मापदंडों को ईश्वरीय निर्देशों से ऊपर रखा जाए तो वह पुरुषार्थ की जगह उछल-कूद बन जाता है, जिसमें फिर लौटकर वहीं से शुरुआत करनी पड़ती है जहां से शुरुआत की थी।
ईश्वरीय पुरुषार्थ के हर कदम में सिर्फ लाभ ही लाभ
अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि हम पुरुषार्थ शब्द के भावार्थ स्वरुप में स्थिर हो। व्यर्थ प्रलाप, प्रतिस्पर्धाओं, खींचतान और मनमानेपन को पुरुषार्थ का नाम ना देकर ईश्वरीय शिक्षा एंव निर्देशों के ईमानदार अनुपालन को पुरुषार्थ समझें। क्षणिक लाभ और हानि के भ्रम से ऊपर उठ जाएं क्योंकि ईश्वरीय पुरुषार्थी के हर कदम में सिर्फ लाभ ही लाफ हो सकता है। उसकी जीत तो जीत है ही लेकिन उसकी हार में भी जीत है क्योंकि उसकी हार में भी उसके मूल्यों की विजय स्पष्ट दिखाई देती है। यही उसे असली विजेता बनाती है। प्रारब्ध ऐसे पुरुषार्थियों का सखा बन जाती है।