प्रेम की बड़ी संभावना मनुष्य के भीतर है। लेकिन ना उसकी शिक्षा है, ना उसे जगाने का उपाय है, ना उसे प्रकट होने देने की सुविधा है, बल्कि हम सब शत्रु हैं, प्रेम के। हमने सब जगह ऐसी व्यवस्था कर ली है कि प्रेम कहीं पैदा ना हो सके। हमने ऐसी चालाकियां की हैं कि प्रेम के लिए हमने कोई मार्ग नहीं छोड़ा है। मनुष्य में प्रेम भर पैदा ना हो सके और सब पैदा हो जाए। आश्चर्य और मज़े की बात तो यह है कि प्रेम पैदा ना हो, तो जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह कुछ भी पैदा नहीं होता।
जैसा कि मैंने कहा जहां भय है, वहां घृणा पैदा होगी। जहां भय है, वहां ईर्ष्या पैदा होगी। जहां भय है, वहां हिंसा पैदा होगी। जहां भय है, वहां क्रोध पैदा होगा। जहां भय है, वहां पूरा नरक पैदा होगा। क्योंकि भय के ये सब अनुषांगिक अंग हैं। ये सब भय की संतति हैं। ये सब भय के पुत्र हैं। जहां प्रेम है, वहां आनंद पैदा होगा, वहां शांति पैदा होगी, वहां करुणा पैदा होगी, वहां दया पैदा होगी, वहां सौंदर्य पैदा होगा, वहां स्वर्ग के द्वार खुलेंगे, क्योंकि प्रेम की संतति हैं ये सब। भय के केंद्र पर जो व्यक्ति है, वहां वह सब पैदा होगा। भय के केंद्र का अंतिम परिणाम विक्षिप्तता है, मैडनेस है। प्रेम के अंतिम केंद्र का परिणाम विमुक्ति है, विमुक्तता है, मोक्ष है।
प्रेम कैसे जन्मे? प्रेम की बंद दीवारें कैसे टूटें? कोई राजनीतिज्ञ, दुनिया का कोई नेता विश्र्वशांति नहीं ला सकता है, क्योंकि राजनीति के सारे केंद्र भय के हैं। कोई धर्मगुरु दुनिया में शांति नहीं ला सकता है, क्योंकि तथाकथित धर्मगुरु का केंद्र ही भय है, जिसके आधार पर वह गुरु बना हुआ है और शोषण कर रहा है।
दुनिया में तो एक ही रास्ते से शांति आ सकती है। मनुष्य के व्यक्तित्व में और समस्त जीवन में और वह रास्ता है: प्रेम का कैसे जन्म हो। कैसे प्रेम का जन्म हो? प्रेम क्या है? वह कैसे पैदा हो? वह सबके भीतर पड़ा हुआ बीज है, लेकिन बीज बीज ही रह जाता है, वह कभी अंकुरित नहीं हो पाता उसे भूमि नहीं मिल पाती, उसे पानी नहीं मिल पाता, उसे सूरज की रोशनी नहीं मिल पाती। वह बीज बीज ही रह जाता है। जो बीज बीज ही रह जाता है, उसके भीतर एक कसक, एक दर्द, एक पीड़ा रह जाती है कि मैं जो हो सकता था, वह नहीं हो पाया, नहीं हो पाया, नहीं हो पाया। एक फ्रस्ट्रेशन, एक विफलता उसके आसपास छाई रह जाती है। मनुष्य में जो चिंता दिखाई पड़ती है, वह प्रेम के बीज के प्रकट न होने की चिंता है, वह फ्रस्ट्रेशन है। मनुष्य में जो उदासी दिखाई पड़ती है, वह उसके भीतर जो होने की संभावना थी, जो पोटेंशियल्टी, वह होने को पैदा हुआ था, जो उसकी डेस्टिनी थी, जो उसकी नियति थी, जो उसे हो जाना चाहिए था, वह नहीं हुआ। जब गुलाब के पौधे पर फूल खिलते हैं, जब एक चमेली खिल जाती है, अपने फूलों में और अपनी सुगंध लुटा देती है, तो हवाओं में नाचते हुए उसके पत्तों को देखा है? हवाओं में नाचते हुए उस पौधे को देखा है, जिसके फूल खिल गए हैं पूरे? उससे ज्यादा मौज में, उससे ज्यादा आनंद में कोई कभी दिखाई पड़ा है? लेकिन जिस पौधे पर फूल नहीं आ पाते हैं या जिसकी कलियां कलियां ही रह जाती हैं और कुम्हला जाती हैं, उसकी उदासी देखी है? उसकी चिंता देखी है? उसके लटके हुए, मुरझाए हुए पत्ते देखे हैं….
मनुष्य के केंद्र पर प्रेम के अतिरिक्त कोई पुकार नहीं है, कोई आह्वान नहीं है। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जिस दिन यह प्रेम का फूल पूरा खिलता है, उसी दिन परमात्मा भी उपलब्ध हो जाता है। प्रेम परमात्मा का द्वार है। लेकिन प्रेम का कोई ख्याल नहीं, कोई स्मरण नहीं। क्या करें? यह प्रेम कैसे फैले, कैसे विकसित हो, इसकी बंद दीवारें कहां से तोड़ी जाएं, यह झरना कहां से फोड़ा जाए कि यह खिल जाए? कुछ करना बहुत अपरिहार्य हो गया है, बहुत जरूरी हो गया है। अगर हम नहीं करते हैं, तो शायद प्रेम के अभाव में पूरी मनुष्यता नष्ट भी हो सकती है। कैसे? तो दो-तीन छोटे से सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, जिससे यह प्रेम की सरिता बह उठे।
पहली बात, जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम के फूल को खिलाना हो, उसे प्रेम मांगने का ख्याल छोड़ देना चाहिए। उसे प्रेम देने का ख्याल स्पष्ट कर लेना चाहिए। पहला सूत्र, जो लोग प्रेम मांगते हैं, उनके भीतर प्रेम का बीज कभी अंकुर नहीं हो पाएगा। जो लोग प्रेम देते हैं, उनके भीतर प्रेम का बीज अंकुरित हो सकता है। क्योंकि अंकुरित होने के लिए दान चाहिए। एक बीज जब अंकुरित होता है, तो क्या करता है? पत्ते निकलते हैं, शाखाएं निकलती हैं, फूल खिलता है, सुगंध बिखर जाती है, सब बंट जाता है। बंट जाना है, तो भीतर का बीज खुलेगा। जो मांगता है, वह सिकुड़ जाता है। भिखमंगे से ज्यादा सिकुड़ा हुआ हृदय किसी का भी नहीं होता है। जो मांगता है, वह सिकुड़ता जाता है। उसके भीतर कोई चीज़ बंद होती चली जाती है।
दूसरा सूत्र : देने में अगर अपेक्षा रखें, देने में अगर कोई एक्सपेक्टेशन है, देने में अगर कोई ख्याल है कि लौटना चाहिए, तो कभी नहीं लौटेगा। लौटेगा नहीं और भीतर जो पैदा हो सकता था, वह पैदा नहीं होगा, क्योंकि दान कभी भी कंडीशनल नहीं हो सकता, सशर्त नहीं हो सकता। दान हमेशा बेशर्त है। प्रेम का जन्म होगा, अगर बेशर्त दान हो। बेशर्त दान प्रेम की शिक्षा की दूसरी सीढ़ी है।
तीसरा सूत्र : जो आपके प्रेम को स्वीकार कर ले उसके प्रति अनुग्रह, ग्रेटिट्यूड कि उसने स्वीकार किया। हम तो यह चाहते हैं कि वह हमारा धन्यवाद करे कि हमने उसे प्रेम दिया। लेकिन प्रेम का बीज यह चाहता है कि हम अनुग्रह स्वीकार करें, उसका ग्रेटिट्यूड कि तुमने स्वीकार किया। तुम इनकार भी कर सकते थे। एक गिरा हुआ आदमी यह भी कह सकता था कि नहीं, मत उठाओ। फिर मेरी क्या सामर्थ्य थी कि मैं उसे उठाने का मौका पाता। लेकिन नहीं, उसने मुझे उठाने दिया। उसने एक अवसर दिया कि मेरे भीतर जो प्रेम है, वह बह सके। उसने एक ऑपरच्युनिटी दी, उसके लिए मुझे धन्यवाद देना चाहिए। उसे नहीं कि वह मेरा धन्यवाद इस अनुग्रह के भाव में भीतर की कली और जोर से चटखेगी और खिलेगी। क्योंकि अनुग्रह के भाव में ही जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह खिलता है और विकसित होता है।
प्रेम है द्वार प्रभु का # 1/ साभार ओशो इंटरनैशनल फाऊंडेशन