जैसा कि अनेकानेक महान लेखकों ने किया है, उस तरह अगर आप जीवन को एक यात्रा के रूप में देखें तो आप जान जाएँगे कि इस यात्रा में कभी हम हरे-भरे मन भावन खेतों से गुज़रते हैं, कभी लहलहाती नदियों-वादियों से जाते हैं, तो कभी शुष्क, बीहड़ रेगिस्तान और घने-अंधेरे जंगलों से निकलते हैं। हम सब यह जानते हैं और अपने जीवन में अनुभव करते हैं। कभी हम स्वयं को संसार के शिखर पर पाते हैं, तो कभी बेहद उदास और हताश हो जाते हैं।
जब अच्छा समय होता है, तो हम खुश होते हैं, आनन्दित होकर प्रभु का आभार मानते हैं। जब समय प्रतिकूल होता है, तब हम अपना सन्तुलन खो बैठते हैं। हम सांसारिक न्याय पर सवाल खड़े करने लगते हैं। ऐसे समय पर ही मन में प्रश्न उठता है कि क्या प्रभु न्यायशील हैं? क्या वे सच में न्यायशील हैं?
इससे पहले कि आप इस का उत्तर ढूँढ़ें, इससे पहले कि आप यह निर्णय लें कि प्रभु न्यायशील हैं या नहीं, मैं आपका ध्यान चार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्यों की ओर ले जाना चाहता हूँ:
1. हम सब को चुनाव की स्वतंत्रता है। प्रभु ने हर एक व्यक्ति को स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। वैसी ही स्वतंत्रता, जैसी उन्होंने अपने लिए रखी हुई है। सदाचार और दुराचार, अच्छाई और बुराई, सेवा और स्वार्थ में से किसी का भी चुनाव करने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है। वह चाहे तो स्वार्थी बन जाए, चाहे तो निःस्वार्थी । चाहे तो बुराई के रास्ते पर चलकर अपराधी बन जाए। चाहे चोर बन जाए, चाहे हत्यारा । इसी तरह चाहे तो सच्चाई की राह चुन ले और वह धरती पर भगवान बन जाए चुनाव पूरी तरह उसका अपना है।
पर याद रखो, अगर उसे चुनाव का अधिकार है, तो सारे कर्मों की ज़िम्मेदारी भी उसकी है क्योंकि बिना ज़िम्मेदारी के अधिकार नहीं मिला करते। जीवन के हर कदम पर हमें स्वतंत्रता रहती है कि हम किसी भी दिशा में चलें।
यहाँ, अगर मैं अच्छाई के मार्ग को चुनता हूँ तो मैं आगे बढ़ता हूँ, प्रगति करता हूँ, आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता हूँ। अगर बुराई के मार्ग को चुनता हूँ, तो नीचे गिरता हूँ, पिछड़ता हूँ। अगर मैं सही की जगह गलत और अच्छाई की जगह बुराई को चुनता हूँ, तो अपने कर्मों के फल के लिए प्रभु को कैसे दोषी ठहरा सकता हूँ?
पशु और मानव में यही अंतर है। पशुओं की अपनी कोई समझ नहीं होती, न ही अपनी कोई इच्छा होती है कि वे अपने लिए कोई चुनाव करें। वे बिना किसी लक्ष्य के कार्य करते हैं। वे केवल अपनी अंध वृत्तियों से प्रेरित होते हैं। कल्पना कीजिए कि एक व्यक्ति जंगल से गुज़र रहा है और उसका सामना आदमखोर शेर से हो जाता है, जो उसके माँस के टुकड़े-टुकड़े कर उसे खा जाता है। इस भयानक घटना में पशु को दोष कैसे दिया जा सकता है? पशु भूखा था, उसने शिकार किया और उसे खाया। उसने जो किया अपनी स्वाभाविक वृत्ति के अनुसार किया, इसके अतिरिक्त वह और क्या कर सकता था?
इसकी जगह अगर आप या मैं भूखे होते, हमारे पास विकल्प रहता। हम चाहते तो पास के मुर्गे या बकरे को पकड़ते, बेचारे बेसहारा पशु को काटते और उसके माँस से अपना पेट भरते। अथवा उस हिंसा को छोड़कर अहिंसा का मार्ग चुनते और फल एवं सब्ज़ियाँ खाते। चुनाव हमें करना है और हमारे कर्मों की ज़िम्मेदारी हम पर ही है। यदि हम गलत विकल्प चुनते हैं, तो हमें उसके अशुभ परिणामों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा।
केवल जुबान के स्वाद के लिए किसी जीव का जीवन लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है। आखिर, जीवन तो प्रभु द्वारा दिया गया उपहार है, जब मैं किसी को जीवन दे नहीं सकता तो मुझे उसे लेने का क्या अधिकार है? जब हम अच्छे और बुरे, उचित एवं अनुचित में से चुनाव करते हैं, तभी हम उसके परिणाम को भी निश्चित कर देते हैं। यदि हम सही मार्ग चुनते हैं तो हमें खुशी मिलती है, यदि हम गलत मार्ग चुनते हैं तो हमें कष्टों और दुःखों का सामना करना पड़ता है। खुशी, प्रसन्नता और सफलता की घड़ी में अक्सर हम प्रभु को भूल जाते हैं पर जैसे ही दुःख का समय आता है, हम प्रार्थना और विनय भाव से प्रभु की ओर दौड़ते हैं और शिकायत करते हैं – क्या कर दिया है आपने? मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
श्रेय और प्रेय के रूप में उपनिषदों में भी इन विकल्पों का उल्लेख है। श्रेय का अर्थ है श्रेष्ठ, प्रेय का अर्थ है प्रिय अथवा मनभावन। प्रेय हमें आकर्षित करता है और अन्नतः हम मनभावन के इतने अधिक अभ्यस्त हो जाते हैं कि उसी में उलझ जाते हैं। पर यह विकल्प हमने स्वयं चुना है।
श्रेय मार्ग, अच्छाई का मार्ग बड़ा कठिन है, काँटों भरा पत्थरीला मार्ग है, शुष्क और बीहड़ है। उसकी तुलना में, प्रेय मार्ग चिकना और फिसलन भरा है, बिना किसी प्रतिरोध के आप इस मार्ग पर फिसल सकते हैं, किन्तु वह फिसलन आपका अन्त बन सकती है। जब आप श्रेय मार्ग पर चलते हैं, आप संघर्ष तो करते हैं, आप कष्ट तो पाते हैं पर आप नेकी की राह की ओर बढ़ रहे होते हैं।
चुनाव आप का अपना है। जो भी मार्ग मैंने चुना है, उसमें जो कटु अनुभव आते हैं, उन्हें अगर मैं स्वीकार नहीं करता तो प्रभु की न्यायशीलता पर प्रश्न कैसे उठा सकता हूँ? क्या मेरी ओर से यह न्यायसंगत होगा कि मैं यह प्रश्न उठाऊँ – क्या प्रभु न्यायशील हैं? जो विकल्प मैंने चुना है, उसके लिए प्रभु को दोष देना क्या उचित है ?
2. जीवन में हमारे कर्मों के बदले हमें दण्ड अथवा पराजय की अपेक्षा उपहार और पुरस्कार ही अधिक मिलते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा है जीवन अनुभवों की एक धारा है। जब हम कठिन दौर से गुज़र रहे होते हैं, जब दुर्भाग्य, दुःख रोग, विपत्ति, मृत्यु, पराजय या निराशा से हमारा सामना होता है, तो हम प्रभु के अन्याय की चर्चा करते हैं और पूछने लगते हैं, मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
दूसरी ओर जब हम सुख के दौर में चल रहे होते हैं, जब हमें प्रभु से विशेष वरदान प्राप्त होते हैं, तब हमें प्रभु से यह कहने का विचार ही नहीं आता – हे प्रभु! आपने मुझे ऐसी खुशी क्यों दी? मैं इसके योग्य नहीं हूँ।
जीवन में ऐसे कई अवसर आते हैं, जब लोगों को ऐसे उपहार मिलते हैं, जिन के संबंध में उन्होंने सोचा भी न था या जिस के लिए वे जीवन भर तड़पते रहे। लम्बे और निराशा भरे इंतज़ार के बाद संतानहीन दम्पतियों को संतान का वरदान मिलता है। जिसे धन की बहुत ज़रूरत थी, उसे जैकपॉट लग जाता है। किसी को चिर-प्रतीक्षित तरक्की मिल जाती है। तब कोई प्रभु से यह कहने की नहीं सोचता कि आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? वे स्वाभाविक रूप से समझ लेते हैं कि अपने जीवन में आए सुखों पर उनका अधिकार है, ऐसा होना ही था।
3. अगर हम प्रभु की कृपाओं को अनुभव करने का कष्ट करें तो पाएँगे कि उनकी कृपा अनन्त है। जो लोग जीवन के प्रति शिकायतें लेकर मेरे पास आते हैं, उन्हें मैं दो कागज़ देता हूँ। उनसे कहता हूँ कि एक कागज़ पर आपने जो क्रूरता, अनुचित, अन्यायपूर्ण, अत्याचारपूर्ण, बेईमानी और कपटपूर्ण कार्य किए हैं उन्हें लिखो। दूसरे कागज़ पर आप ने जो अच्छे, श्रेष्ठ, निःस्वार्थ काम अपने जीवन में किए हैं उन्हें लिखो । यही अभ्यास मैं आपको भी करने के लिए कहूँगा, क्योंकि हो सकता है, इससे आपकी आँखें खुल जाएँ।
जब आप यह दोनों सूचियाँ तैयार कर लेंगे तो पाएँगे कि पहली सूची, दूसरी सूची से बहुत लम्बी है। जब आप उन्हें पढ़ेंगे, तो निश्चित ही आपके हाथ प्रभु के सामने प्रार्थना के लिए जुड़ जाएँगे और आप कहेंगे, “हे प्रभु! मुझ पर कृपा करो, मैंने जो गलत काम किए हैं, उनके लिए मुझे क्षमा करो।”
ऐसा अधिकांश लोगों के साथ होता है कि उनके बुरे कार्य, अच्छे कार्यों की तुलना में बहुत अधिक होते हैं। अपने द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कार्यों के लेखे-जोखे की ऐसी अनिश्चित जानकारी के रहते, भला कोई कैसे दावा कर सकता है कि प्रभु उसके प्रति न्यायशील नहीं हैं!
4. अंतिम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात हमें यह समझनी है कि जब कष्ट आता है, तब प्रभु उस कष्ट को सहने की शक्ति और बुद्धि भी देते हैं। दुःख और विवेक-बुद्धि, कष्ट और सहन-शक्ति एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं। प्रभु ऐसा कभी भी नहीं करते कि हमें कष्ट दें,पर उसे सहने की शक्ति और विवेक साथ में न दें। तभी तो मनुष्य व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक आपदाओं के बाद भी जीवित रहता है और निरन्तर, विकास एवं प्रगति करता रहता है। यह सत्य है कि हम जीवित हैं, हम सांस ले रहे हैं, इस तथ्य का प्रमाण है कि प्रभु द्वारा दी गई शक्ति और विवेक से ही हम हमेशा कष्टों पर विजय पाते रहे हैं।
विलियम बरकले नामक एक महान लेखक थे, जिन्होंने बहुत-सी प्रेरणादायक पुस्तकें लिखी हैं। वे तेजस्वी शिक्षक भी थे, वे अपनी बेटी से बहुत प्रेम करते थे क्योंकि वह उनकी इकलौती संतान थी। जब वे उसके विवाह की तैयारियाँ कर रहे थे, अचानक उनकी बेटी की डूबने से मृत्यु हो गई। इस अवसर पर बरकले ने कहा, “मेरा जीसस से कोई झगड़ा नहीं। जिस तूफान में मेरी बेटी मारी गई, मैं नहीं जानता कि प्रभु उसे टाल सकते थे या नहीं, परंतु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरे हृदय में उठने वाले आन्तरिक तूफान को उन्होंने अवश्य शान्त किया है।”
यह सच है, हर कष्ट के साथ प्रभु की कृपा हमें प्राप्त होती है। एक व्यक्ति का इकलौता बेटा, एक युद्ध में मारा गया। उसने अपने मित्र से कहा- जब कोई इन्सान ऐसे कष्ट को पाता है तो उसके पास तीन रास्ते होते हैं पहला है शराब पीना, दूसरा है हताश होना और तीसरा है प्रभु! प्रभु के अनुग्रह से मैंने तीसरे विकल्प को चुना है। उनके नाम की गरिमा बनी रहे। कष्टों के साथ आते हैं विवेक और शक्ति!
जब आप इन तथ्यों पर विचार करते हैं कि किस प्रकार प्रभु ने हमें चुनाव की स्वतंत्रता प्रदान की है, जीवन हमें कितने उपहार और वरदान देता है, प्रभु कितनी कृपा करते हैं, कष्टों के साथ ही किस तरह वे शक्ति और विवेक भी देते हैं, तब क्या प्रभु की न्यायशीलता पर सवाल उठाना हमारे लिए उचित है? क्या यह पूछना उचित है कि क्या प्रभु न्यायशील हैं?