कुछ समय पहले मैं मुंबई में जुहू बीच पर किसी के मकान पर ठहरा था। वहाँ मुझे चौबीस घंटे समुद्र की लहरों की आवाज़ सुनाई देती थी। समुद्र की ओर देखा, जहाँ शोर शराबा लहरों का, जिसका कोई अंत नहीं था। जल का पानी उछल रहा था, समुद्र की गहराई का कोई अंत न था। मैं समुद्र को देखता ही रहता था। मेरी आँखें ही नहीं थकती थीं।
जब संसार समुद्र भव सागर का विचार किया, तो सोचा, यहाँ विकारों के मगरमच्छ हैं, तृष्णाओं के भँवर हैं। जिनके घेरे में हम आ जाते हैं और इन गगन भेदी लहरों से घबराकर हम पुकारते हैं, कोई है जो हमें आकर बचाए? एक प्रभु ही है जो दयालु है सद कृपालु! इस भवसागर से वही हमें आकर बचाते हैं। ऐसा ही हुआ था उस भक्त के साथ, जिसके चरणों में दक्षिण भारत के हज़ारों लोग आज सिर झुकाते हैं। वह था सातवाँ आलवर, उसका नाम था थोंडर पोड़ी आलवर। उसका असली नाम था विप्रनारायण। वह कृष्ण भक्त था। वैरागी पुरूष था। विद्ववान था, बुद्धिमान था। उसने वेदों का अभ्यास किया, पर उसे अपनी विद्या का अभिमान नहीं था। सीधा सादा था। नम्र था, श्री रंगम में रंगनाथ मंदिर के पास रहता था। अपना अधिक समय मंदिर में व्यतीत करता। रंगनाथ के चरणों में बैठकर आँसू बहाता और अपने ईष्ट देव को पुकारता रहता। वह संसार की दल-दल में नहीं फंसा, क्योंकि उसके हृदय में प्यास थी, कि वह अपनी मानव योनी को सफल करे। कितने कष्टों के बाद हमें यह दुर्लभ जन्म मिला है, किन्तु बहुत कम लोग हैं, जिन्हें इस जन्म की कदर है। विप्रनारायण उन थोड़े लोगों में से एक था। बचपन में ही उसे एहसास हो जाता है, कि यह जन्म उसे मिला है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए, मानव योनि मिली है, ताकि अपने भीतर जाकर अपने प्रीतम के चरण कमल पाए, उनका दीदार करे। उसके हृदय में प्रभु को पाने की प्यास थी। उसे धन सम्पत्ति से लगाव नहीं था। वह ऐसे आराम की जिंदगी नहीं चाहता था। वह दुनिया के यश और प्रशंसा से दूर रहता। दुनिया के शोर शराबे से दूर रहता। उसके पास एक छोटा बगीचा था। वह उस बगीचे में पेड़ पौधे लगाता, उनकी देखभाल करता, उन्हें पानी देता। जैसे जैसे वह बगीचे में काम करता, वैसे वैसे वह नाम उच्चारता रहता था।
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे! हरे श्याम, हरे श्याम,
श्याम श्याम हरे हरे!”
यह धुन उसके हृदय में गूँजती रहती थी। सारा समय उसकी आँखें अपने श्याम को ढूँढ़ती रहती थीं। हमें भी ऐसा करना चाहिए। हमें कितना समय मिलता है। सुबह उठते हुए, तैयार होते हुए उस समय हमारे मन में व्यर्थ विचार घूमते रहते हैं, जो हमारे अंतःकरण को अशुद्ध करते हैं। जो भी क्षण मिले हैं, उसमें नाम उच्चारते रहें, तो हमारा अंतःकरण शुद्ध होगा। हमारे मन की चंचलता दूर होगी और हमें सच्चा सुख प्राप्त होगा। विप्र नारायण हाथों से काम करता, और मुख से नाम जपता था। उसके बगीचे में कई प्रकार के फूल खिलते हैं। उन्हें तोड़कर वह घर बनाता और श्री कृष्ण श्री रंगनाथ को पहनाता, तब उस की आँखों से आँसू बहते, और उसके हृदय से यह पुकार निकलती,
“पहनाऊँ तुझे हार,
देना रहम निहारः
हूँ तेरी शरण में,
वह कभी किसी स्त्री की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता था। क्योंकि वह जानता था, कि जिज्ञासू की राह में तीन रुकावटें आती हैं, कामिनी, कंचन और कीर्ति। इन तीनों से वह दूर रहने की कोशिश करता था। लेकिन देखिए एक दिन क्या होता है? एक दिन उसके बगीचे में दो स्त्रियां आती हैं। दोनों बहनें थीं। छोटी बहन सौंदर्य की प्रतिमा थी। उसका नाम था देवी। देवी का चाल चलन ठीक नहीं था। उसने अपनी सुंदरता को बेच दिया था। कितने ही अमीर उसके आगे पीछे घूमते थे। कितने उसके हुस्न पर हैरान थे। देवी पाप का जीवन जीती थी। दोनों बहनें विप्र नारायण के बगीचें में आईं। उस समय विप्र नारायण पौधों में पानी डाल रहा था। बड़ी बहन ने छोटी से कहा, “इस भक्त की ओर देखो। यह बड़ा ही अनोखा भक्त है। इसे कोई भी स्त्री ललचा नहीं सकती। तुझे अपने सौंदर्य पर बड़ा गुरुर है, पर तेरी सुंदरता का इस पुरुष के सामने कोई मूल्य नहीं। तेरा सौंदर्य इसके सामने झूठ और धूल की भाँति है।“ यह सुनकर देवी क्रोध से भड़क उठती है, और ललकारती हुई बहन से कहती है, “यदि मैंने इसे अपना गुलाम नहीं बनाया, तो मैं तेरे घर में नौकरानी बनकर रहूँगी।“
देवी ने एक षडयंत्रा रचा। एक बार अगर औरत के दिमाग पर शैतान सवार हो जाए तो वह क्या नहीं कर सकती? दूसरे दिन देवी गेरूएँ कपड़े पहनकर विप्र नारायण के पास आती है। उसके हाथ में पुष्पों की माला थी। विप्र नारायण उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। उसकी आँखें झुकी हुई थीं। वह उससे कहता है, “देवी, तुम यहाँ क्यों आई हो? इस बगीचे में स्त्रियों का आना मना है।“ देवी कहती है, “गुरुजी! मैं आपकी शरण में आई हूँ। मैं कठिन समय से गुज़र रही हूँ। मेरी दशा बुरी है। मेरी माता मुझे वेश्या बनाना चाहती है। मैं यह पेशा नहीं अपनाना चाहती। मैंने आपकी साख सुनी है। आप संत हैं, सत्पुरुष हैं। मुझ मजबूर बेबस स्त्री पर रहम खाइए। मुझे अपने कदमों में स्वीकार कीजिए। स्वामी जी शरणागत की लाज रखो।“ विप्र नारायण ठहरा भोला भाला भक्त! स्त्रिायों की चाल बाजि़यों से वह वाकिफ नहीं था। वह देवी की बात सुनकर सोच में पड़ जाता है। पिफर उससे कहता है, “देवी! यहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। फिर तुम यहाँ कैसे रहोगी?” देवी कहती है, “स्वामीजी! आप मुझे भले ही ना निहारें। मैं बगीचे में दूर किसी पेड़ के नीचे रह लूँगी। किसी भी तकलीफ का सामना कर लूँगी, पर अपनी ज़ालिम माँ से दूर रहूँगी, क्योंकि मैं वेश्या नहीं बनना चाहती। मैं अपना जीवन रंगनाथ के चरणों में अर्पण करना चाहती हूँ। अपना जीवन सफल करना चाहती हूँ। मैं पेड़ के नीचे सो जाऊँगी। आपके बगीचे के पौधों की देखभाल करूँगी। फूल तोड़कर हार बनाऊँगी। देखो! मैंने कितना सुंदर हार बनाया है। यह हार आप अपने ठाकुर पर चढ़ाइए और मेरे लिए दुआ माँगिए। मुझे किसी खास व्यंजन की जरूरत नहीं है। जो भी आप खाएँगे, उस खाने से जो बचेगा, वह जूठन मैं खा लूँगी, पर किसी भी तरह मुझे बचा लीजिए।“ विप्र नारायण को दया आ जाती है। कहता है, “देवी! तुम भले बगीचे के किसी कोने में रहो, किन्तु मेरी झोपड़ी से दूर, इस तरह कि तुम्हारी परछाई भी मुझ पर न पड़े।“
देवी बगीचे में रहने लगती है। इस तरह छः महीने गुजर गए हैं। एक दिन तेज बारिश होती है। सारा दिन पानी बरसता रहा। रात को बारिश बंद नहीं हुई। देवी के कपड़े गीले हो गए थे। उसका शरीर काँप रहा था। इस हाल में वह विप्र नारायण के पास आती है और कहती है,” गुरुदेव! बारिश पड़ रही है, मेरा शरीर ठंड से काँप रहा है। अगर आप इजाज़त दें, तो मैं आज की रात आपकी कुटिया के एक कोने में बिता लूँ। सुबह सवेरे मैं बाहर चली जाऊँगी।“ विप्र नारायण देखता है कि देवी के कपड़े गीले हैं, उसे दया आ जाती है। वह अपनी चादर उतारकर देवी को देता है। जैसे ही वह उसे चादर देता है, वैसे ही उसकी आँखें देवी के सुंदर चेहरे पर पड़ती है। उसका सुंदर चेहरा और सलोना मुखड़ा देखकर वह दंग रह जाता है। इतना सौंदर्य उसने पहले कभी नहीं देखा था। वह देवी को एकटक देखने लगता है। तब वह उससे कहता है, ”देवी! तुम कोने में क्यों बैठी हो। तुम मेरे पास आकर बैठो।“
यह भक्त, जिसने अपना हृदय श्याम सुंदर को अर्पण किया था। अब देखो, उसकी क्या दशा हो गई है? इन्सान के कर्मों की कोई गाँठ रह जाती है। जब वह गाँठ खुलती है, तो इन्सान की कैसी दुर्दशा हो जाती है। इन्सान बेबस हो जाता है। इसलिए हमें कभी किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
गुरुदेव साधु वासवानी जी बार बार कहते थे, “पापी के पाप से नफरत करो, किन्तु पापी से नफरत मत करो! ना ही उसकी निंदा करो।“ प्रभु की लीला न्यारी है। श्रीमद् भगवद गीता में अर्जुन श्री कृष्ण से पूछता हैः “हे भगवान! मनुष्य न चाहते हुए भी पाप कर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बल पूर्वक उनमें लगाया जा रहा है।“ तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन! इसका कारण रजो गुण से उत्पन्न हुआ काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है, और जो इस संसार का सबसे बड़ा शत्रु है। जिस प्रकार धुएँ से अग्नि, और मैल से दर्पण ढँक जाता है, वैसे ही काम के द्वारा ज्ञान ढक जाता है और हे अर्जुन! इस अग्नि के सामने, कभी न पूर्ण होनेवाला काम रूप, ज्ञानिओं का नित्य वैरी है। इसके कारण ही मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है।“ तब अर्जुन कहता है, “हे भगवन! कोई तो शक्ति है जो इंसान को जबर्दस्ती खींचती है। कोई इंसान जिसने अपना जीवन प्रभु नाम को अर्पण किया है, जिसके हृदय के भीतर काम का विचार कभी भी ना आया हो, जिसकी एक ही इच्छा है कि मैं पूर्ण रूप से प्रभु का हो जाऊँ, जो सांसारिक बंधनों से दूर रहता है, इसके बावजूद कोई तो शक्ति है, जो इंसान को बेबस करती है, मानो जबर्दस्ती उसे पाप के अंधकूप की ओर खींचकर ले जाती है।“
तब श्री कृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन! यह काम है; काम का मतलब यहाँ विषय वासना से नहीं है। काम का मतलब है, कोई भी कामना या इच्छज्ञ।“ श्री कृष्ण कहते हैं, “यह काम, यह क्रोध, उत्पन्न होते हैं रजो गुण से। यदि तुम काम से दूर रहना चाहते हो, तो तुम्हें रजो गुण से मुक्त होना पड़ेगा। जब तक रजो गुण से मुक्त नहीं होते, तब तक काम क्रोध से मुक्त नहीं हो सकते। हर एक की कोई न कोई कामना है। किसी को धन संपत्ति की कामना, किसी को मान सम्मान, यश पाने की कामना किसी को इंद्रिय भोग की कामना, ये सब कामनाएँ अग्नि के समान हैं। अग्नि में जितनी अधिक लकड़ियाँ डालेंगे, जितना अधिक घी डालेंगे, उतनी ही अधिक वह भड़क उठेगी। जैसे-जैसे आप अपनी कामनाएँ पूरी करते जाएँगे, वैसे-वैसे काम अग्नि ज़्यादा प्रज्जवलित होगी, और एक दिन आएगा, जब वह तुम्हें जलाकर राख कर देगी। अब प्रश्न यह है कि इस अग्नि से कैसे छुटकारा पाएँ? इसका एक सरल उपाय है। जिस कामना का मुख इस समय दुनिया की ओर है, उसे मोड़कर प्रभु की ओर कर दो, और कहो, “प्रभु! मुझे धन सम्पत्ति नहीं चाहिए, मान सम्मान, यश नहीं चाहिए, ऐशो-आराम नहीं चाहिए। मुझे चाहत है बस, एक तेरी! एक तेरी! एक तेरी ही एक तेरी! इस दिशा में यदि हम आगे कदम बढ़ाएँगे, तो एक दिन प्रभु को पाकर सब इच्छाओं से मुक्त हो जाएँगे।
देवी को देखने के बाद विप्र नारायण की अब रातों की नींद उड़ गई। रात भर वह करवटें बदलकर देवी को ही याद करता रहता है। देवी विप्र नारायण की हालत का अन्दाज़ा लगा लेती है। अब वह नाज़ नखरे करने लगती है, और यह भक्त जो रंगनाथ का दास था, अब बन गया है लड़की का गुलाम। देवी विप्र नारायण को पूरी तरह से अपने रूप जाल में फाँस लेती है। उसे अपने प्रेम में पागल कर देती है। विप्र नारायण अब सबकुछ भूल जाता है। उसके हृदय में एक ही चाह रहती कि वह हर पल देवी के साथ रहे।
अब यह देवी उससे कहती है, ‘यदि मेरे साथ रहना चाहते हो, तो मुझे पैसे लाकर दो। विप्र नारायण अपनी सारी जायदाद बेच देता है। अपना बगीचा, जिससे फूल तोड़कर वह ठाकुरों पर चढ़ाता था, वह बेचकर देवी को पैसे लाकर देता है। अब विप्र नारायण के पास कुछ भी नहीं बचता। वह कंगाल हो चुका था। इस बेबसी की हालत में वह देवी पूछती है, “कौन है?” विप्र नारायण कहता है, “तेरा आशिक!” देवी पूछती है, “क्या लेकर आये हो?” विप्र नारायण कहता है, “मेरे पास अब कुछ नहीं है, मैं केवल अपनी काम तृष्णा लाया हूँ।“ देवी पूछती है, “ पैसे लाए हो?” विप्र नारायण कहता है, “अब तो मेरे पास कुछ नहीं है। जो था वह सब तुम पर न्यौछावर कर चुका हूँ।“ देवी कहती है, “मुझे तुम्हारी जरुरत नहीं है, चले जाओ! यदि तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं, तो चले जाओ।“ आँखों से आँसू बहाता हुआ, वह लौट आता है। उसके शरीर का रोम रोम पुकार रहा था, “देवी”, “देवी!” प्रभु को अपने भक्त पर दया आती है। प्रभु की लीला न्यारी है। उस रात रंगनाथ के मंदिर के आँगन में एक यात्री सोया था। उस यात्री के सपने में श्री कृष्ण आते हैं और उससे कहते हैं; मंदिर का एक दरवाज़ा आज पुजारी ने बन्द नहीं किया है। उस दरवाजे से मंदिर के भीतर जाओ और वहाँ से सोने की थाली उठाकर देवी के पास ले जाओ। उससे कहो, “मैं विप्र नारायण का नौकर हूँ। यह सोने की थाली विप्र नारायण की ओर से तुम्हारे पास लाया हूँ। यह थाली देवी को देकर, जो भी उसका सन्देश हो, वह विप्र नारायण को जाकर दो। उसके बाद तुम गायब हो जाना।“
यात्री आधी रात को उठता है। वह सोचता है, “यह सपना था या सच्चाई?” उठकर देखता है, तो सचमुच मंदिर का एक दरवाज़ा खुला था। वह अन्दर जाता है। मंदिर से सोने की थाली लेकर देवी के घर पहुँचता है। उससे कहता है, “मैं विप्र नारायण का नौकर हूँ, मेरे मालिक ने तुम्हारे लिए यह सोने की थाली भेजी है।“ देवी सोने की थाली देखती है, तो उसकी आँखें चमकने लगती हैं। कहती है, मेरे प्रीतम से कहना’, मैं तुम्हारी राह तक रही हूँ, “आजा! आजा।“ यह सन्देश वह यात्री आकर विप्र नारायण को देता है। विप्र नारायण दौड़ा-दौड़ा देवी के पास आता है और सारी रात उसके साथ गुज़ारता है।
सुबह मंदिर के पुजारी देखते हैं, कि सोने की थाली मंदिर से गायब है। वे थाने में रपट लिखवाते हैं। पुलिस जाँच-पड़ताल शुरू करती है। उन्हें पता चलता है, सोने की थाली देवी के घर में है। वे देवी को पकड़ते हैं। तब वह कहती है “यह थाली उसे विप्र नारायण का नौकर दे गया था।“ फिर पुलिस विप्रनारायण को पकड़ती है। वह कहता है, “मेरे पास तो कोई नौकर है ही नहीं। मैं स्वयं कंगाल हूँ। मेरे पास नौकर कहाँ? मैं सोने की थाली कहाँ से ला सकता हूँ?” पुलिस उन दोनों को पकड़कर जेल में डाल देती है। उस रात राजा को श्री कृष्ण सपने में आकर कहते हैं, “यह थाली मैंने उठाकर देवी के यहाँ पहुँचाई थी। इसलिए विप्र नारायण को आज़ाद कर दो। उसका बगीचा भी उसे लौटा दो, ताकि वह माली का काम कर सके, और देवी को भी आज़ाद कर दो।“ सुबह होते ही राजा देवी और विप्र नारायण को आज़ाद कर देता है। विप्र नारायण का बगीचा उसे वापस दिलाता है। विप्र नारायण को जब सारी बात का पता चलता है, तो उसकी आँखों से अज्ञानता के पर्दे हट जाते हैं। उसका सारा नशा टूट जाता है। कहता है, “मैंने यह क्या किया? मैं इतना समय अपने प्रीतम से दूर रहा। फिर भी मेरा प्रभु कितना दयालु है। उसने मुझे नहीं छोड़ा। उसने मेरी रक्षा की। मैंने उससे मुँह मोड़ लिया, फिर भी मेरे प्रभु ने मेरा हाथ पकड़े रखा।“ वह रोता है, प्रभु को पुकारता हे, और फिर से उसकी भक्ति में लीन हो जाता है। सन्तों, सत्पुरूषों के पास जाकर उनसे पूछता है, “मैं इतने साल पाप भरा जीवन जिया हूँ, उसका पश्चात्ताप कैसे करूँ?” संत उससे कहते हैं, “सबसे बेहत्तरीन पश्चात्ताप यही है, कि भक्तों के चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाओ।“ विप्र नारायण ऐसा ही करता है। इसलिए उस का नाम पड़ गया “थोन्डर पोड़ी।“ इस शब्द का अर्थ है, “जो भक्तों के चरणों की धूली अपने शरीर पर लगाए।“
अब विप्र नारायण के जीवन में परिवर्तन आ गया था। वह भाव विभोर होकर श्री रंगम के मंदिर में आता है। रंगनाथ के चरणों में बैठकर आँसू बहाता है, पुकारता है, गीत गाता है। उसके सारे गीत एक पुस्तक में संकलित किए गए हैं। उसके एक गीत का भावार्थ कुछ इस तरह है।
“तुम्हारे मुख कमल को बार बार मैं निहारूँ,
“दिल के दर्द और गम में मैं तुम्हें पुकारूँ।
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“किए गुनाह भारी, मैं हूँ गुनाहगार,
“रखा निकट अपने, है अनोखा तुम्हारा प्यार!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी,!
“विकारों के बस होकर, मुँह तुम से मैंने मोड़ा,
“तुम हो पतित पावन, नहीं नाता तोड़ा।
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“इस दिल के भीतर, उठा काम का तूफान,
“भुलाया मैंने तुमको, गँवाया होश ज्ञान!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“तुम्हारा नाम निर्मल, मैंने नहीं गाया,
“भक्तवत्सल भगवन! मुझे तुमने बचाया।
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“तुमहारा हो दयालू, मैं तेरा गुलाम,
“करो कदमों में कबूल, मेरे सुन्दर श्याम!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“तुम माता-पिता हो, गुरुदेव मेरे,
“जन्म-जन्म में नहीं छोडूँ चरण तुम्हारे!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“किया तुम्हें मैंने स्वंय को अर्पण,
“रंगा रंग देना, देकर दीदार दर्पण!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!
“अनजली अयाणी है, सदा भोली-भाली
भक्तों के चरणों की माँगे धूली!
“मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी!”
हम ने भी बार-बार प्रभु से मुँह मोड़ा है। बार बार प्रभु को भुलाया है। हम सब भी प्रभु को पुकारें:
पापी हूँ, गुनाहगार, ऐ रहमान! रहम में निहार!
मुझे दो तुम माफी, मुझे दो तुम माफी! प्रभु की कृपा क्या नहीं कर सकती?