मानवीय मूल्य

मानवीय मूल्य

जब किसी मनुष्य को किसी अन्य मनुष्य से वांछित व्यवहार नहीं मिलता, तो प्रायः हम यह कहते हुए सुनते हैं कि 'उस मनुष्य में तो मनुष्यता ही नहीं है' अथवा कि 'वह तो इन्सानियत से ही गिर चुका है।'

आज के वातावरण में जबकि लोग दूसरों का हक छीनते हैं, बर्बरता-पूर्ण व्यवहार करते हैं और अश्लीलता को साहित्य, समाचार पत्रिकाओं, कला-कृतियों, चलचित्रों और नाट्यगृह के मंचों पर देखना पसंद करते हैं, तब भी हम कुछ लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि ‘अब तो मानव दानव बन गया है’ अथवा कि ‘अब तो वह पशु-तुल्य हो गया है।’ इससे भी अधिक जब एक देश, दूसरे देश के नगरों पर, वहां के अस्पतालों पर, धर्म-स्थानों पर, बसे हुए जन-स्थानों पर अपने बम फेंकते हैं, तब हम जन-जन के मुख से इस वाक्य का उच्चारण सुनते हैं कि ‘अब इंसानियत का तो जनाजा ही उठ गया है’ अथवा कि ‘अब तो इंसान हैवान से भी बदतर, पूरा शैतान बन गया है।’ दूसरे अवसरों पर जब पड़ोसी-पड़ोसी के परस्पर व्यवहार की बात आती है अथवा मिल-मालिकों के अपने मजदूरों के साथ या धनवान लोगों के निर्धनों के साथ सम्बन्ध की चर्चा होती है, तब हमें प्रायः यह सुनने को मिलता है कि ‘अब तो इन्सान का दिल ऐसा पत्थर -सा हो गया है कि गरीबों के बच्चों को भूख से बिलबिलाते देखकर या उन्हें जून की आफत की गर्मी और कड़ाके की धूप में पत्थरों पर पड़े देखकर भी उसे दया नहीं आती!’ या जब हम देखते हैं कि महानगरों के फुटपाथों पर दांत बजाने वाली सर्दी के मौसम में जमीन पर ठिठुरते मनुष्य को देखकर भी देश के कर्णधार, नेता या धनवान लोग करुणा-प्लावित हुए बिना वहां से चले जाते हैं, तब भी यही कहा जाता है कि ‘अब न जाने मानवता कहां खो गई है!’

मानव, दानव, पशु और शैतान में क्या अन्तर है?

इस सारी चर्चा-परिचर्चा के परिप्रेक्ष्य में प्रश्न उठता है कि मानव और दानव में, मानव और पशु में अथवा इन्सान और शैतान में क्या मुख्य अन्तर है? दूसरे शब्दों में कौन-कौन-से ऐसे मूल्य अथवा गुण हैं, जिनके कारण मानव का दर्जा हमने सबसे ऊंचा रखा है, जिनकी वजह से यह कहा जाता है कि समस्त ईश्वरीय रचना में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी अथवा ‘अशरफ-उल-मखलूकात है।

मुख्य मानवीय मूल्य

ऊपर हमने मानवी व्यवहार के बारे में जो कुछ कहा है उससे कुछेक ऐसे मानवीय मूल्य तो स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ जाते हैं, जिनके कारण मनुष्य को ‘मनुष्य’ – अन्य प्रणियों से श्रेष्ठ – माना जाता है। अथवा दानव, शैतान या हैवान से उच्च माना जाता है। फिर भी संक्षेप में कुछेक विशेष मानवीय मूल्यों का यहां हम उल्लेख कर रहे हैं –

क्षमाशीलता, दया अथवा करुणा

हम पीछे मानव और पशु की तुलना कर रहे थे। पशु में बर्बरता होती है। वह दूसरे के हित का कभी चिन्तन नहीं करता। शेर, चीता, भेड़िया आदि दरिंदे अपना पेट भरने के लिए दूसरे को शिकार बनाते हैं और अपने लिए दूसरे को पीड़ा देते हैं। वे प्रहार करके, हिंसा करके, अन्य का रक्तपात करके, निर्दयतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसके विपरीत मनुष्य से आशा की जाती है कि वह ‘जीयो और जीने दो’ अथवा ‘न दुख दो, न दुख लो’ की नीति के अनुसार संसार में जीवन-यात्रा करेगा। इसलिए आप देखेंगे कि जब कोई मनुष्य दूसरों के साथ अन्याय और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करता है अथवा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति अपनाता है, तो लोग कहते हैं कि ‘इसमें इन्सानियत तो रही ही नहीं।’ इसका अर्थ यही हुआ कि मानव-मात्र के प्रति सद्भावना, न्याय, सहानुभूति, अहिंसा और दया मानवीय मूल्य हैं। इनमें क्षमा तो सम्मिलित हो ही जाती है क्योंकि क्षमा के बिना दया की सीमा संकुचित हो जाती है। ध्यान दिया जाए तो हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि करुणा में पूर्वोक्त सभी मानवीय गुण एक साथ आ जाते हैं क्योंकि जहां करुणा है, वहां हिंसा, पर-पीड़ा, स्वार्थपरता, अनाधिकार चेष्टा, अन्याय आदि हो ही नहीं सकते, बल्कि उनका स्थान सहअस्तित्व, सहनशीलता, सहकारिता, सहयोग, सहानुभूति आदि ले लेते हैं और मनुष्य दूसरों के कल्याणार्थ त्याग, सेवा आदि मानवीय मूल्य स्वतः ही अपना लेता है।

वैसे भी हम व्यवहार-जगत में झांक कर देखें, तो आज कोई भी मानव सर्वगुण सम्पन्न तो है ही नहीं। अतः हरेक में कोई-न-कोई कमी है और हरेक से कोई-न-कोई भूल भी होती ही है। अतः यदि कोई दूसरे द्वारा भूल होने पर उसे क्षमा नहीं करेगा तो किसी समय स्वयं द्वारा भूल होने पर दूसरों से भी अपमानित होगा। अतः अपनी भूल के लिए प्रयश्चित्त करना और उसका सुधार तथा दूसरे की भूल को क्षमा कर उसे भुला देना, स्वयं भी सुखपूर्वक जीने की नीति अपनाने और दूसरे को भी अपना मित्र बनाने की विधि है। इस प्रकार स्नेह न कि घृणा, क्षमा न कि प्रतिशोध ही मानवीय मूल्य है। स्वयं को बदलकर दिखाने में ही मानवता की पराकाष्ठा है, बदला लेना मानवता का पतन है। ‘अपकारी पर भी उपकार (परोपकार)’ करना ही मानवी मूल्य है, तिरस्कार करना अमानवी है।

शुभचिन्तन और शुभचिन्तक

मानव और दानव में भी अथवा मनुष्य और शैतान में भी यही मुख्य अन्तर है। दानव और शैतान – दोनों स्वयं भी दुखी होते हैं और दूसरों को भी दुखी करते हैं। अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए वे दूसरे का जरा भी हित-चिन्तन या शुभ-चिन्तन नहीं करते। उनका व्यवहार दूसरों के लिए भयकारक और अहंकारपूर्ण होता है। उनमें सौहार्द, स्नेह और विधि-विधान का अभाव होता है। वे चरित्र, नियम और मर्यादा की संहिता का सदा उल्लंघन करते हैं। दानव वह है जिसके लिए ईमानदारी, वफादारी, फरमानबरदारी और शालीनता का कोई मूल्य नहीं परन्तु मानव के लिए तो ये मौलिक गुण हैं। दानव के स्वभाव में क्रूरता और कर्कश कर्मों का समावेश रहता है जबकि मानव में सन्तुलन, अनुशासन और मधुरता का समावेश होता है। अतः ईमानदारी, वफादारी, चारित्रिक दृढ़ता, शालीनता, आत्म-नियन्त्रण तथा मानसिक सन्तुलन मानवीय गुण हैं। इनसे ही पारस्परिक व्यवहार में शान्ति और प्रेम बने रहते हैं, वर्ना इनके अभाव में संसार में लड़ाई-झगड़ा, कलह-क्लेष और अशान्ति पनपते हैं।

शान्ति, निरहंकारिता और निर्विकारिता

अब यदि मानव और शैतान के अन्तर पर विचार करें, तो हम देखते हैं कि जो उच्छृंखल (निरंकुशता), अमर्यादित और अत्याचारी है वही शैतान है। शैतान अपराध करता है। वह सामाजिक जीवन को अस्त-व्यस्त करता, तोड़-फोड़ करता तथा दूसरों की शान्ति को भंग करता है। इस दृष्टि से यदि देखा जाये, तो काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार मानव को शैतान बनाने वाले हैं, क्योंकि कामी मनुष्य भी छेड़-छाड़ और कामघात, अपहरण, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन आदि अपराधों अथवा पापों में प्रवृत्त होकर समाज में अनाचार, दुराचार और अशान्ति फैलाता है। क्रोधी तो अपनी क्रोध की अग्नि को लिए हुए यत्र-तत्र-सर्वत्र आग और धुएं से सभी के अश्रुपात और मानसिक पीड़ा के निमित्त बनता है। वह अपने जहरीले ‘शब्द बाणों’ से, अपनी रक्तिम ज्वालामयी दृष्टि से, अपने उबलते हुए मन से न जाने कितने अपराध कर डालता है। ऐसे ही कर्म वह करता है जिस पर लोभ, मोह या अहंकार का भूत सवार होता है। अतः यदि देखा जाए तो निरहंकारिता और निर्विकारिता ही मानवी मूल्य हैं और अहंकार तथा अन्य सभी विकार शैतान के लक्षण हैं। बाइबिल में कहा गया है कि भगवान ने इन्सान को अपने अनुरूप बनाया, तो अवश्य ही भगवान ने जो मनुष्य बनाया वह भी भगवान की तरह निर्विकारी ही होगा अर्थात दैवी स्वभाव वाला ही होगा। आदम, जो कि आज के आदमी का पूर्वज था अथवा मनु जो मनुष्य का आदि-पूर्वज था, में इन सभी मूल्यों की विद्यमानता स्वीकार की जाती है। परन्तु हम देखते हैं कि इन्हीं मूल्यों के ह्रास के कारण यह संसार स्वर्ग से नरक बन गया है। अतः अब इन्हीं मूल्यों की पुनर्स्थापना द्वारा ही सतयुग का अभ्युदय हो सकता है।

आध्यात्मिक विद्योपार्जन द्वारा चारित्रिक उत्कर्ष

विशेष बात यह है कि मनुष्य एक मननशील प्राणी है। अन्य प्राणियों की तुलना में उसकी यह भिन्नता है कि वह भाषा जानता है, जो कुछ सीखना चाहे सीख सकता है और स्वयं में महान गुण धारण करके पवित्र, महान अथवा पूज्य बन सकता है। वह विश्व-नाटक में स्वयं की भूमिका तथा परमपिता परमात्मा के बारे में सत्यता को जान सकता है। वह लोक-परलोक की पहेली को समझ सकता है। अतः आध्यात्मिक विद्योपार्जन तथा उस द्वारा चारित्रिक उत्कर्ष ही सभी मानवी मूल्यों की नींव है। इसके बिना मानव और दानव अथवा मानव और पशु या मानव और शैतान का अन्तर पूर्णतः नहीं मिटता। जब मनुष्य यह समझ लेता है कि ‘मैं एक ज्योतिस्वरूप आत्मा हूं और अन्य सभी भी आत्माएं ही हैं और हम सभी परमपिता परमात्मा की अमर सन्तानें हैं, तभी उसमें सही रूप से भ्रतृत्व, सहानुभूति, प्रेम, क्षमा, दया, करुणा, उदारता, त्याग आदि-आदि मानवी मूल्य उभर पाते और टिक पाते हैं।

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