यदि वह लड़का है, तो वह मां से बंध जाता है और वह बहुत बड़ी समस्या है। यदि वह लड़की है, तो वह पिता से बंध जाती है। हर लड़की उसके पूरे जीवन अपने पति में पिता जैसा व्यक्ति ढूंढती रहेगी और यह असंभव है। कुछ भी दोहराया नहीं जाता। तुम अपने पिता को पति की तरह नहीं ढूंढ सकते। इसीलिए हर स्त्री हताश है, कोई पति सही नहीं लगता। हर पुरुष निराश है क्योंकि कोई भी स्त्री तुम्हारी मां नहीं होगी।
अब, यह बड़ी अजीब समस्या है। पति अपनी पत्नी में मां को ढूंढने का प्रयास कर रहा है, पत्नी अपने पति में पिता को ढूंढने का प्रयास कर रही है। वहां सतत संघर्ष है। शादी नरक की आग है। चूंकि वे पति की तरह, पत्नी की तरह दुखी हैं, उन्हें कहीं सांत्वना ढूंढनी होगी, किसी परमात्मा में, किसी पंडित में।
तुम परमात्मा को पिता क्यों कहते हो? और फिर देवियों को मां कहते हैं…ये बचपन के बंधन हैं। तुम उन पर निर्भर थे। कब तक तुम अपने माता-पिता के साथ चिपके रहोगे? पिता और मां चाहते हैं कि तुम आत्मनिर्भर हो, लेकिन उन्हें होश नहीं है कि उन्होंने एक ही बात सिखाई है, निर्भर हो।
अब तुम दुनिया में जाते हो। तुम्हारा पूरा मनोविज्ञान मांगता है कि कोई तुम्हें बचाने वाला हो। तुम भेड़ बनने को तैयार हो, ज़रुरत है तो किसी चरवाहे की, कोई जो तुम्हें सांत्वना दे, “डरो मत। सिर्फ मुझ पर भरोसा करो और मैं तुम्हें बचा लूंगा। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा।’
किसी परमात्मा की ज़रुरत होती है जो सर्व शक्तिमान हो; उसे होना ही होगा, वर्ना वह कैसे अरबों लोगों का ध्यान रखेगा? उसे सर्व शक्तिमान होना ही होगा, संपूर्ण शक्तिशाली; सर्वज्ञ, सब कुछ जानने वाला; सर्वत्र उपस्थित, सब जगह उपलब्ध। यह तुम्हारी इच्छा है। इस निर्भरता के कारण पुजारी निश्चित ही मानवता का शोषण करता है।
कार्ल मार्क्स सही है, जब वह कहता है कि धर्म लोगों के लिए अफीम का नशा है। तथाकथित संगठित धर्म निश्चित ही लोगों के लिए अफीम का नशा है।
मैं नहीं कहूंगा कि धार्मिकता लोगों के लिए अफीम का नशा है। यह पूरी दूसरी ही बात है। परमात्मा नहीं, पिता नहीं, पुजारी नहीं, रबाई नहीं, तुम अपने स्वयं के पैरों पर खड़े हो। तुम्हारी श्रद्धा अस्तित्व में है, किसी बिचोलिए पर नहीं।
मेरा सारा प्रयास यह है कि तुम्हें मेरे ऊपर निर्भर नहीं होना चाहिए, भले ही तुम बुद्ध हो या न हो। यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो, तो इसकी अधिक ज़रुरत है कोई निर्भरता नहीं क्योंकि निर्भर व्यक्ति आध्यात्मिक गुलाम होता है और गुलाम को बुद्धत्व को उपलब्ध होने का कोई अधिकार नहीं है। जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो तब भी तुम्हें अपनी आत्मनिर्भरता की घोषणा करनी है, तुम्हारी स्वतंत्रता की घोषणा करनी है क्योंकि यह आत्मनिर्भरता तुम्हारे बुद्धत्व के मार्ग को निर्मित करेगा।
निश्चित ही बुद्धत्व के बाद किसी तरह की निर्भरता की ज़रुरत नहीं होती। क्योंकि वहां किसी तरह की निर्भरता की ज़रुरत नहीं होती, तुम अनुगृहीत हो सकते हो, तुम करुणावान हो सकते हो और तुम गुरु की करुणा को समझ सकते हो। तुम्हारे अंधेरे में, अचेतन में गुरु की करुणा और प्रेम को समझना कठिन है।
लेकिन, इस क्षण में इससे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं होना चाहिए। इस क्षण में तुम्हारी सारी चिंता ध्यान की होनी चाहिए। ध्यान में गहरे जाओ और वहां तुम करुणा पाओगे और तुम करुणा की समझ पाओगे। तुम स्वतंत्रता पाओगे और तुम पाओगे कि स्वतंत्रता का मतलब अकृतज्ञता नहीं है, धन्यवाद हीनता नहीं है।
इसको प्रकट करने की ज़रुरत नहीं है, तुम्हारा हृदय इसके साथ धड़केगा, तुम्हारा हृदय सतत घंटियां बजाएगा आनंद की, आशीष की और गुरु के प्रति परम अनुग्रह की। लेकिन यह निर्भरता नहीं है।
कोई भी गुरु जो प्रामाणिक है वह तुम्हारे से समर्पण की, तुम्हारी प्रतिबद्धता की मांग नहीं करेगा। ये धोखेबाज हैं जो तुम्हारे समर्पण की मांग करते हैं, जो तुम्हारी प्रतिबद्धता की बात करते हैं। यह कोई संप्रदाय नहीं है, यह पूरी तरह से वैयक्तिक लोगों का समूह है। यह कोई समाज नहीं है, न ही क्लब, न चर्च। यह संगठन नहीं है।
मुझे बांटने में आनंद आता है और तुम प्यासे हो, मेरे पास तुम्हारे साथ बांटने के लिए पर्याप्त पानी है। क्योंकि मैं रहस्य जानता हूं: जितना मैं बांटूगा उतना ही अधिक मेरे पास होगा, इसलिए मैं खोने वाला नहीं हूं और तुम अस्तित्व में और उसके रहस्यों के प्रति अधिक से अधिक गहरी अंतर्दृष्टि लेते जाओगे।
लेकिन, मेरे ऊपर निर्भर होने का कोई सवाल ही नहीं है। मैं बस तुम्हारा मित्र भर हूं। यदि तुम मुझे अपना गुरु कहते हो, तो यह तुम्हारा प्रेम है। मुझे तुम अपना गुरु कहो इसके लिए कोई आदेश नहीं दिया गया है। तुम मुझे अपना मित्र कह सकते हो, तुम मुझसे बिना किसी संबोधन के प्रश्न पूछ सकते हो। संबोधन असली बात नहीं है। तुम मुझसे गहन प्रेम से जुड़े हो, बिना किसी शर्त के, न तो तुम्हारी कोई शर्त है, न मेरी। मैं इसे स्पष्ट करता हूं।
जब कभी तुम किसी को अपने पर निर्भर करते हो, तुम भी उस व्यक्ति पर निर्भर हो जाते हो। तुमने इस बारे में कभी सोचा है कि निर्भरता पारस्परिक घटना है? गुलाम का मालिक भी गुलाम का गुलाम है। लोगों का नेता भी लोगों का अनुसरण करने वाला है। नेता लगातार देखता रहता है कि भीड़ किधर जा रही है, वह आगे कूद पड़ता है ताकि नेता बना रहे। वह सतत वे बातें कहे चलता है जो भीड़ सुनना चाहती है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे नुकसानदायक या जहरीली हैं। जो भी भीड़ सुनना चाहती है वह कहे चले जाता है।
कभी भी किसी को अपने ऊपर निर्भर मत करना, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति, तुम्हारे बच्चे, क्योंकि जितना तुम उन्हें अपने ऊपर निर्भर करोगे उतना ही तुम उन पर निर्भर होते चले जाओगे। अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने बच्चों को स्वतंत्र होने दो। आत्मनिर्भर होने में उनकी मदद करो और यह तुम्हें उनसे मुक्त होने में मदद करेगा।
यदि हम लोगों को आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता सिखा सकें तो धर्मों के सारे झूठ विदा हो जाएंगे।
ओशो,:क्रिश्चिटिएनिटी: दि डेडलिएस्ट पाय़जन एण्ड झेन: दि एंटीडोट टु ऑल पाय़जन से उद्धृत
ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।