“साधु-संतों को देखो, उनका जीवन ऐसा हो गया है जैसे कि वो जीवन ही नहीं। ये लोग ध्यानी नहीं हैं। ये अपने आप को सताने वाले लोग हैं, खुद को प्रताड़ित करते हैं और उस प्रताड़ना में आनंद लेते हैं… मन बहुत ही चालाक होता है, वो कुछ भी करता चला जाता है और उसे तर्कसंगत बनाता जाता है।
“आमतौर पर तुम दूसरों के प्रति हिंसक होते हो, परंतु मन बहुत चालाक है, वह अहिंसा सीख सकता है, वह अहिंसा का पाठ पढ़ा सकता है, तब वह खुद के प्रति ही हिंसक हो जाता है। जो हिंसा तुम खुद के प्रति करते हो उसको लोग बहुत आदर देते हैं क्योंकि ये उनकी मान्यता है कि तपस्वी बहुत धार्मिक होता है। ये निपट मूढ़ता है। परमात्मा कोई संन्यासी नहीं, नहीं तो संसार में ना फूल होंगे, ना हरियाली, बस रेगिस्तान होंगे। परमात्मा कोई संन्यासी नहीं, नहीं तो जीवन में ना तो नृत्य रहेगा न संगीत, बस श्मशान ही श्मशान घाट होंगे। परमात्मा कोई संन्यासी नहीं हैं, परमात्मा जीवन का आनंद लेते हैं। परमात्मा तुम्हारी कल्पना से भी अधिक ‘एपिक्यूरियन’ है। यदि तुम परमात्मा के बारे में विचार करते हो, तो ‘एपिक्युरस’ के संदर्भ में उसका विचार करना। परमात्मा नित नए सुख, आनंद और उन्माद की खोज है। इसे स्मरण रखें।
“परंतु मन बहुत होशियार होता है। यह अपंगता को ध्यान के रूप में तर्कसंगत कर सकता है। यह जड़ता को समाधि के रूप में तर्कसंगत कर सकता है। यह निष्प्राण को त्याग के रूप में तर्कसंगत कर सकता है।” इससे सावधान रहो। हमेशा स्मरण रखो यदि तुम सही दिशा में चलते रहे, तुम एक फूल की तरह खिलते रहोगे।”
ओशो, एंशियंट म्यूजिक इन द पाइंस से उद्धृत
ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।