आज हम देखते हैं कि नारी, पुरुष में और पुरुष, नारी में आसक्त होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। दोनों एक-दूसरे के प्रति दैहिक आकर्षण में आकर सुध-बुध को गंवा बैठते हैं और मर्यादा को छोड़ देते हैं। इस प्रकार वे आत्म-संयम के मुख्य गुण से वंचित हो जाते हैं। मानसिक संतुलन की अवस्था खोकर तथा अपनी दृष्टि और वृत्ति को अपवित्र करके वे अपयश के भागी बनते हैं। अपने कुटुम्बियों के मोह-जाल में फंसकर भी मनुष्य अपनी परेशानी के निमित्त स्वयं ही बन जाता है।
अतः मनुष्य को चाहिए कि सबसे स्नेह से व्यवहार करते हुए भी तथा सबके प्रति अपने उत्तरदायित्व को निभाते हुए भी, मोह के पाशों में बंधने वाला पशु न बने बल्कि प्यारा होते हुए भी न्यारा रहे। वह प्रेम करते हुए भी न्यारा रहे। मृदुल होते हुए भी सुदृढ़ता को न छोड़ें। आत्मीयता को प्रकट करते हुए भी अपनी आत्मा को न खो बैठे। यह तभी संभव होगा जब वह सारे विश्व को ही अपना परिवार मानेगा, संसार को एक मंच मान कर, एक कुशल अभिनेता की तरह संबंध निभाता हुआ भी वास्तविकता में स्वयं को उनसे अलग समझेगा।
इसी प्रकार, धन के होते हुए भी यदि मनुष्य का मन उदार होगा, वह उसे समाज-सेवा का एक साधन मानेगा, उस द्वारा अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करते हुए उसे परोपकार के काम में भी लगाएगा तथा उसे सिद्धि न मान कर एक साधन-मात्र ही मानेगा और साधन की श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए ही उसे अर्जित करेगा, तो उसका जीवन कमल पुष्प-सा बन सकेगा।
यही बात प्रतिष्ठा के बारे में भी कही जा सकती है। मनुष्य को जो सम्मान प्राप्त होता है, वह उसके सही परिश्रम का सुखद् प्रमाण है। अतः प्रतिष्ठा अथवा यश एक नया उत्साह लाने का साधन बन सकता है, परंतु यदि वह अभिमान का रूप ले लेता है, तो वो मनुष्य के पतन का कारण बन जाता है। यदि मनुष्य पद अथवा प्रतिष्ठा को पकड़े रहने की कामना के वशीभूत हो जाता है, तो अंततोगत्वा (अंतत:) वही पद उसके अपयश का कारण बन जाता है। ज्ञानवान मनुष्य वह है जो इस संसार को एक खेल मानते हुए न तो सफलता में अधिक गर्वान्वित होता है और न ही असफलता से निरुत्साहित बल्कि वह सफलता से प्रेरणा और असफलता से शिक्षा लेकर अपने कदम को और दृढ़ता से, सतर्कता से तथा सूझ से आगे बढ़ाता जाता है। इस प्रकार, इन तीनों प्रकार के क्षेत्रों में अलिप्तता प्राप्त करने वाला मनुष्य सदा शांति का रस लेता है, उसके प्रकाशमय जीवन से तमो-राज्य मिट जाता है तथा ज्योति के राज्य अथवा रामराज्य की सुस्थापना स्वयं हो जाती है।
जिन्होंने पूर्वकाल में कमल-सा जीवन व्यतीत किया है, वे ही आज भारत के मंदिरों में पूजे जाते हैं। उन्हीं के हर एक अंग के नाम के साथ कमल शब्द का प्रयोग होता है, जैसे कि कमल नेत्र, कमल मुख, कमल हस्त, कमल चरण इत्यादि। भक्त लोग उन्हीं का गुणगान करते हैं और यदि उनके जीवन में थोड़ा भी दुख हो तो वे उन देव-मंदिरों में जाकर उनसे शांति मांगते हैं क्योंकि उन्होंने अपने जीवन को कमल-सा बनाया था। क्या ही अच्छा हो यदि हम अपने जीवन को उनकी तरह दिव्य तथा कमल-पुष्प के समान अलिप्त बनाएं।