रात के 12 बजे थे। सारा शहर निद्रा देवी के आगोश में था। गोपाल धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था मानो उसके पैरों में भारी पत्थर बंधे हों। चारों ओर देखते हुए सोच रहा था, इसी शहर में जन्मा, पला-बढ़ा, आज शहर को छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। अचानक उसके पैर रुक गए, सामने ही रेलवे स्टेशन था। उसने मीठे बाबा को याद किया और रेलवे स्टेशन की तरफ बढ़ गया। प्लेटफॉर्म पर पहुंचा ही था कि अचानक एक ट्रेन आकर रुक गई। वह जाकर ट्रेन में एक सीट पर बैठ गया। बोगी में एक-दो आदमी ही बैठे थे। ट्रेन चल पड़ी अपनी मंज़िल की ओर। गोपाल ने पीछे छूट रहे शहर को निहारते हुए एक लंबी सांस ली और विचारों में खो गया….

उसके परिवार में पिता जी, माता जी और एक छोटा भाई था। खुशहाल परिवार था। पिता जी की किराने की दुकान अच्छी-खासी चलती थी। गोपाल भी दुकान पर जाया करता था। पिता जी हमेशा समझाते थे, ‘बेटे, जीवन में आगे बढ़ना है तो मेहनत और ईमानदारी चाहिए। व्यवसाय में सच्चाई का बहुत महत्व होता है। इससे विश्वास बनता है, जो दुकानदार की मुख्य पूंजी होती है।’

समय ने करवट ली और उसके पिता जी ने शरीर छोड़ दिया। अब लौकिक परिवार की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई। नियमित रूप से दुकान पर जाते हुए वह पिता जी के बताए रास्ते पर चलने लगा। अपनी मां की हर बात को भी श्रद्धा से मानता क्योंकि उसे सदैव याद रहता कि ‘जो ना माने बड़ों की सीख, थाम कटोरा मांगे भीख।’ छोटे भाई को भी स्नेह करता, उसकी हर आवश्यकता का ख्याल रखता।

एक दिन रविवार को वह टहलने जा रहा था कि अचानक उसकी नज़र ने कुछ सफेद वस्त्रधारी भाई-बहनों को देखा। उधर बढ़ा तो देखा कि वे चित्रों द्वारा कुछ समझा रहे थे। पता चला कि ब्रह्माकुमारी आश्रम से संबंधित हैं। गोपाल भी चित्रों पर समझने लगा, उसे बहुत अच्छा लगा, उनकी दिव्यता को देख कर बहुत प्रभावित हुआ। उसने निश्चय किया कि हर रविवार को आश्रम जाएगा और जीवन को दिव्य बनाने का पुरुषार्थ करेगा।

अचानक एक अफवाह फैली कि ‘नमक’ की भारी कमी होने वाली है। यह सुनकर लोग नमक खरीदने के लिए टूट पड़े। दुकानदारों ने माल का संग्रह कर लिया और दाम बढ़ा दिए। गोपाल अपनी दुकान का सारा काम स्वयं करता था किन्तु उसकी मां ने छोटे भाई को समझाया कि बेटे, दुकान पर तुम भी जाया करो, क्या पता गोपाल हेरा-फेरी करता हो। मां की बात सुनकर छोटे भाई सुरेश ने कहा, भैया, इस बार माल लेने मैं खुद जाऊंगा, आप दुकान संभालो।

उस दिन दुकान पर अचानक से भीड़ लग गई। अधिकतर ग्रहक नमक के ही थे, क्योंकि दूसरे दुकानदारों ने नमक का पांच गुना भाव कर दिया था, किन्तु गोपाल ने भाव नहीं बढ़ाया। परिणामस्वरूप शाम तक उसका सारा नमक बिक गया।

शाम को जब घर गया तो गोपाल बहुत खुश था क्योंकि उस दिन बिक्री अच्छी हुई थी। सुरेश भी घर आ गया था। मां ने पूछा, गोपाल, आज बहुत खुश हो? गोपाल ने कहा, हां मां, आज बिक्री अच्छी हुई, सारा नमक बिक गया। सुरेश ने पूछा, कितने में बेचा भइया? गोपाल ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, खुदरा मूल्य पर। यह सुनते ही सुरेश और मां दोनों चीख पड़े, क्या किया तुमने, सारा माल लुटा दिया? गोपाल मुस्कुराते हुए बोला, लुटाया नहीं, पैसे लेकर दिया। पिता जी कहते थे, ‘बेटे, कभी बेईमानी नहीं करना, ईमानदारी से बरक्कत होती है।’ इस बात ने आग में घी का काम किया और दोनों मां-बेटा गोपाल पर टूट पड़े, ‘आज तूने हजारों का नुकसान कर दिया। तुझे सजा मिलनी ही चाहिए।’ मां-बेटा मिलकर लात-घूंसे और डंडे से गोपाल की धुनाई करने लगे। मां ने चीखकर कहा, निकल जा मेरे घर से, दुष्ट, यहां तुम्हारी कोई ज़रुरत नहीं है। गोपाल हक्का-बक्का था! क्या यही मेरी मां है, जिसे मैं देवता की तरह पूजा करता था? क्या यही मेरा भाई है, जिसका खुद से भी ज्यादा ख्याल रखता था, क्या ईमानदारी का यही परिणाम है? सोच ही रहा था कि अचानक मां ने उसे धक्का देते हुए दरवाजे से बाहर निकाल दिया और चीखते हुए कहा, निकल जा, इस शहर में कभी अपनी मनहूस शक्ल मत दिखाना।

गोपाल बहुत दुखी था। सोचा, जब अपनों ने बेईमानी के चंद पैसों के लिए यह रूप दिखाया तो परायों से क्या उम्मीद होगी? वह आश्चर्य में डूबा विचार कर रहा था कि क्या एक सगी मां ऐसे भी क्रूर हो सकती है? एक सगा छोटा भाई, बड़े भाई पर हाथ उठा सकता है? लानत है ऐसी दुनिया को, मुझे नहीं रहना। अचानक उसे महसूस हुआ कि कोई उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कह रहा है, ‘तुम चिंता क्यों करते हो, मैं जो बैठा हूं।’ स्नेह के इस बोल ने उसके हृदय को प्रकम्पित कर दिया। उसकी आंखों से गंगा-जमुना की धारा बहने लगी। ये आंसू प्रेम के थे। विकट परिस्थितियों में जब उसके अपनों ने धक्का दिया तो शिवबाबा ने उसे गले लगा लिया था।

अचानक ट्रेन झटके से रुकी तो गोपाल की तंद्रा भंग हो गई। यह कोई स्टेशन था। यात्री एक-एक करके उतर रहे थे। पता चला कि ये ट्रेन अब और आगे नहीं जाएगी। गोपाल भी उतर गया। अब उसका मन हल्का हो चुका था। स्टेशन की घड़ी ने 4:30 बजाए। वह शिवबाबा से रूहरिहान करने लगा, ‘बाबा, मैं आपका था, आपका हूं और आपका ही होकर रहूंगा। यह जीवन आपके हवाले है। बस, एक ही आग्रह है कि आप मेरा हाथ और साथ कभी न छोड़ना। मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करूंगा। बस, संकेत करते रहना…..।’

गोपाल को भूख का अनुभव हुआ। रात को भी खाना नसीब नहीं हुआ था। जेब में हाथ डाला तो खाली थी। पैसे आते भी कहां से? दुकान का सारा हिसाब तो वो रोज मां को देता था। ज़रुरत पड़ने पर मां से ही मांग लेता था। अचानक उसकी दृष्टि एक व्यक्ति पर गई जो बेचैन आंखों से चारों तरफ देख रहा था, उसके पास कुछ सामान भी था। गोपाल समझ गया कि यह किसी कुली को ढूंढ़ रहा है। गोपाल ने उस व्यक्ति के पास जाकर पूछा, क्षमा कीजिए, शायद आप किसी को ढूंढ़ रहे हैं। व्यक्ति बोला, कुली को ढूंढ़ रहा हूं, मुझे टैक्सी स्टैंड तक जाना है। चलिए, कहते हुए गोपाल उसके सामान की तरफ बढ़ा ही था कि व्यक्ति ने कहा, ठहरो, पहले बताओ कि क्या लोगे? गोपाल मुस्कुराते हुए बोला, जो खुशी से देंगे, ले लूंगा। गोपाल ने सामान पहुंचा दिया तो उन्होंने गोपाल की तरफ बीस रुपए का नोट बढ़ाते हुए कहा, ठीक है न? जी कहकर गोपाल वहां से हट गया। थोड़ी दूर पर उसे फल की दुकान दिख गई। वहां से केले खरीदे, अच्छी तरह से धोए, फिर चबूतरे पर बैठ कर पहले शिवबाबा को धन्यवाद के साथ भोग लगाया और शिवबाबा के साथ ही प्रसाद खाया। तब तक 5:30 बज गए थे।

वहां से उठकर, गहरी सांस लेते हुए वह आगे बढ़ गया। कुछ ही दूरी पर उसे एक शिवालय दिखाई दिया। वह मुस्कुराया, वाह बाबा! आपने शरणागत को स्थान दे ही दिया। मंदिर बहुत भव्य था। गेट पर पहुंचकर उसने देखा कि अभी तक मंदिर की सफाई नहीं हुई है। इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो कोने में रखी एक झाड़ू, बाल्टी और लोटा दिखाई दिया। गोपाल ने पहले सारा प्रांगण साफ किया। फिर अंदर से मंदिर धोया और पूजा-पात्रों को राख से साफ कर मंदिर में सजा दिया। वो आकर अभी मंदिर के बाहर चबूतरे पर बैठा ही था कि एक बुजुर्ग व्यक्ति ने मंदिर में प्रवेश किया। गोपाल समझ गया कि ये ज़रूर मंदिर के पुजारी होंगे। तभी उनकी नज़र भी गोपाल के ऊपर पड़ी। वे आश्चर्य से कभी मंदिर को, तो कभी गोपाल को देख रहे थे। फिर पूछा, बेटे, क्या यह सफाई तुमने की है? गोपाल प्रणाम करते हुए बड़ी नम्रता के साथ बोला, जी महाराज जी। पुजारी जी बहुत खुश होते हुए हाथ उठाकर बोले, वाह! भोलेनाथ, आपने मेरे सहयोग के लिए बच्चा भेज ही दिया। फिर गोपाल की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, असल में जो लड़का साफ-सफाई का काम करता है वो कल ही अपने गांव चला गया। मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है। बहुत चिंता थी कि सुबह भक्त लोग आएंगे तो क्या होगा, ऐसे कहते हुए उसने गोपाल को गले से लगा लिया।

कुछ देर बाद ही भक्तों का रेला आने लगा। बाद में जब भक्तों का आना बंद हो गया तो पुजारी जी ने कहा, बेटे, प्रसाद मंदिर में रखे पात्र में इकट्ठा कर मेरे पीछे-पीछे आओ और मंदिर का दरवाजा बंद कर दो। मंदिर के बगल में ही मंदिर की एक धर्मशाला थी। वहीं पुजारी जी का आवास था। वहां पहुंच कर पुजारी जी ने कहा, तुम्हें भूख लगी होगी, तब तक प्रसाद ग्रहण करो। फिर पूछ बैठे, क्या तुम्हें भोजन बनाना आता है? गोपाल तपाक से बोला, जी महाराज जी। सुनकर पुजारी जी बहुत खुश होकर बोले, फिर तो ठीक है, दोपहर और रात का भोजन तुम ही बनाना। यहा सब सामान प्रचुर मात्रा में भोलेनाथ ने दिया है, किसी चीज़ की कमी नहीं है। फिर अचानक से बोल पड़े, बेटा, मैं तुम्हारा परिचय पूछना तो भूल ही गया, कौन हो? कहां से आए हो? गोपाल ने बड़ी नम्रता से कहा, महाराज जी, मेरे शरीर का नाम गोपाल है, शिवबाबा का ही बच्चा हू इसलिए बाबा की सेवा में रहना चाहता हूं। पुजारी जी गद-गद हो गए।

दो दिन बीत गए। गोपाल के पास पहने हुए वस्त्रों के अलावा कुछ नहीं था। हालांकि मंदिर में सब था। पुजारी जी ने कह दिया था कि जो ज़रुरत हो, बिना पूछे लेकर इस्तेमाल करना किन्तु गोपाल को यह अच्छा नहीं लगा। दोपहर के भोजन के बाद पुजारी जी आराम करते थे। गोपाल निकल गया शहर की ओर। कुछ दूर जाने के बाद देखा कि एक ट्रक से कुछ लोग सामान उतार रहे हैं। गोपाल खड़ा हुआ तो मालिक ने पूछा, क्या चाहिए? गोपाल ने बड़ी ही नम्रता से कहा, मान्यवर, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं भी काम करूं? उसने गोपाल को नीचे से ऊपर तक देखा और बोला, ठीक है, करो। इस तरह गोपाल ने कुछ दिन काम किया तो उसके पास इतने पैसे इकट्ठे हो गए जो वह अपनी दिनचर्या के लिए कपड़े व आवश्यक सामान खरीद सका।

मंदिर में हर रविवार को पुजारी जी प्रवचन करते थे। एक दिन धीरे-से गोपाल ने कहा, महाराज जी, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं भी कुछ बोलूं। हां-हां कहते हुए पुजारी जी ने गोपाल को अनुमति दी। पुजारी जी मुख्य आसन पर थे। गोपाल ने नीचे आसन पर बैठ कर पहले एक भजन सुनाया तो जिज्ञासुओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। फिर क्या था, अब तो हर रविवार को गोपाल का प्रवचन होने लगा। सबसे पहले उसने परमात्मा का यथार्थ परिचय विस्तार से दिया जिसे जिज्ञासुओं ने बहुत पसंद किया। धीरे-धीरे जिज्ञासुओं की संख्या बढ़ने लगी और मंदिर का चढ़ावा भी बढ़ने लगा। पुजारी जी बहुत खुश थे।

एक रविवार को उस नगर के सेठ जी और सेठानी जी ने भी प्रवचन में भाग लिया। सेठ जी गोपाल को बड़ी गहरी नज़रों से देखते हुए कुछ स्मरण कर ही रहे थे कि अचानक उनको याद आ गया, अरे! यह तो वही लड़का है, जिसने स्टेशन से उनका सामान पहुंचाया था। सेठ जी गोपाल के प्रवचन से बहुत ही प्रभावित हुए थे। सेठानी भी अपलक उस बच्चे की सौम्यता को निहार रही थी। प्रवचन समाप्त होते ही सेठ जी ने पुजारी से गोपाल के बारे में पूछा, तो पुजारी जी ने गोपाल को इशारे से अपने पास बुलाया। गोपाल भी सेठ जी को देखकर चौंक गया। सेठ जी ने गोपाल से पूछा, तुम्हारी शिक्षा कहां तक है? गोपाल ने कहा, ग्रेजुएट हूं। यह सुनते ही सेठ जी खुश होते हुए बोले, महाराज जी, इस बच्चे को मुझे दे दीजिए। पुजारी जी चौंक गए। तभी सेठ जी ने कहा, मेरी फैक्ट्री में एक मैनेजर की जगह खाली है। मुझे ऐसे ही मेहनती, ईमानदार, सच्चे लड़के की तलाश थी, जो अब पूरी हो गई। गोपाल पुजारी जी के असमंजस को जान कर बोला, महाराज जी, मैं नौकरी करते हुए भी भोले बाबा की सेवा नहीं छोडूंगा, मेरी दिनचर्या यही रहेगी। तब सेठ जी खुश होते हुए बोले, तुम्हें फैक्ट्री की ओर से 25000 रुपए मासिक वेतन के साथ एक फ्लैट तथा आने-जाने के लिए एक मोटर साइकिल मिलेगी। ड्यूटी 10 बजे से शाम 5 बजे तक होगी। गोपाल ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

कहते हैं, दिन बीतते देर नहीं लगती। देखते-देखते एक वर्ष पूरा हो गया। इधर, पुजारी जी भी खुश थे और सेठ जी भी खुश थे क्योंकि गोपाल अपना कर्त्तव्य बखूबी निभा रहा था। सेठ जी ने हिसाब लगाया तो पाया कि उनकी फैक्ट्री उस वर्ष दोगुने फायदे में थी। सेठ जी को अपने चुनाव पर गर्व महसूस हुआ।

एक दिन मंदिर में चहल-पहल थी। पता चला कि सेठ जी का जन्मदिन है। वे प्रतिवर्ष दरिद्र नारायण के लिए भंडारा रखते थे और वस्त्र भी दान करते थे। गोपाल भी व्यवस्था में लगा था। दरिद्र नारायण आने लगे। देखते-देखते भीड़ जमा हो गई। वस्त्र वितरण होने लगे। गोपाल एक-एक वस्त्र उठाकर बढ़ाता और सेठ जी एवं सेठानी जी देने लगे। तभी अचानक एक चीख ने सबको चौंका दिया। देखा, एक फटेहाल औरत बेटा-बेटा पुकारते हुए दौड़ी चली आ रही है। उसके पीछे एक लड़का भी है। गोपाल यह देख सन्न रह गया कि ये तो उसकी मां और भाई हैं। तभी वह औरत गोपाल के पैर पकड़कर रोने लगी, बेटा, मुझे सजा दो, मैंने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया, मैंने लोभ और क्रोध के भूत से वशीभूत होकर ऐसे कर्म कर दिए जो दुनिया में कोई भी मां नहीं कर सकती। अरे, मैं तो मां कहलाने के लायक भी नहीं हूं, मैं पापी हूं, मुझे जो चाहो सजा दो। यह घटना इतनी अप्रत्याशित थी कि गोपाल तो जैसे बर्फ की तरह जम गया। जब तंद्रा भंग हुई तो झुककर मां के पैर छुए और भाई को गले लगाया।

गोपाल संभला, उसने टूटे-फूटे शब्दों में बोला, मां, आप तो जननी हैं, पहले भी आप पूज्य थी, आज भी हैं और सदा रहेंगी। यह सुनते ही वह और जोर-जोर से रो पड़ी, सोचा, ऐसे सोने जैसे बेटे के साथ मैंने ऐसा दुर्व्यवहार किया, धिक्कार है।

कुछ देर बाद गोपाल ने पूछा, मां, ये सब कैसे हो गया? मां ने सिसकते हुए कहा, सब लालच का फल है बेटा। हम लोग जल्दी से धनवान होने के लालच में सब कुछ गंवा बैठे। तुम सच्चे थे बेटा। चलो अब वापस चलते हैं। तुम्हें पाकर मेरा भटकना बंद हो गया। गोपाल गंभीर होकर बोला, क्षमा करना मां, अब लौटना संभव नहीं है। मैं पहले भी शिवबाबा का था, आज भी शिवबाबा का हूं और रहूंगा। मैं आप लोगों से नाराज नहीं हूं। उसमें भी कल्याण था। मैं तो आपका आभारी हूं कि आपकी वजह से सम्पूर्ण रूप से बाबा का हो गया हूं। बाबा आपका भी कल्याण एवं सहयोग करेंगे। आप सच्चे दिल से प्रण करें कि आगे से सदा सच्चाई और ईमानदारी के साथ-साथ मेहनत भी करेंगे। यह सुनकर मां और सुरेश ने हाथ जोड़ कर कसम खाई कि हम ईमानदार होकर रहेंगे। गोपाल ने 50 हजार रुपए का चेक मां को देते हुए कहा कि सुरेश फिर से अपना व्यवसाय शुरू करे, शिवबाबा ज़रूर मदद करेंगे।

दिन तेजी से बीत रहे थे। अब गोपाल के मन में एक ही इच्छा थी कि शिवबाबा का राजयोग केन्द्र खुले जहां अनेक आत्माएं आकर अपना जीवन श्रेष्ठ बनाने का पुरुषार्थ कर सकें। उसने पता लगाया तो मालूम हुआ कि वहां से करीब 25 कि.मी. की दूरी पर एक राजयोग केन्द्र है।

एक सुबह उसने पुजारी जी से निवेदन किया कि अगर आपकी सहमति हो तो बगल की धर्मशाला में ही एक राजयोग केन्द्र खुल जाए। वैसे भी वहां कमरे खाली रहते थे। सुनकर पुजारी जी ने तुरंत सहमति दी क्योंकि वे गोपाल से बहुत खुश थे।

आज गोपाल बहुत खुश था। उसकी वर्षों की मनोकामना पूर्ण जो हो गई थी। आज बहुत चहल-पहल थी क्योंकि ब्रह्माभोजन का आयोजन जो था। सूर्य नारायण अपने पथ पर अग्रिसत थे। खुशी का माहौल था। कहीं दूर से एक गीत की ध्यनि तरंगें आ रही थी;

मुझे और जीने की चाहत न होती,

अगर तुम न होते, अगर तुम न होते।।