हमारा भविष्य कैसा होगा?

हमारा भविष्य कैसा होगा?

मनुष्य का यह स्वभाव है कि यदि संभव हो और यदि कोई विश्वसनीय स्त्रोत मिल सके, तो वह भविष्य को पहले से ही जानना चाहता है। आज वैज्ञानिकों ने ऐसे कम्प्यूटर भी बना लिए हैं जिनमें सभी तथ्यों के समाचार और आंकड़े भर देने के बाद उस कंप्यूटर से भविष्य-फल पूछ लिया जाता है।

दूसरी ओर केवल भारत में ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवी माने जाने वाले पाश्चात्य देशों में भी ऐसे बहुत लोग हैं, जो भविष्य को जानने की उत्सुकता से प्रेरित होकर किसी ज्योतिषी, हस्त-रेखा विशेषज्ञ या किसी ‘पहुंचे हुए महात्मा’ के पास जाते हैं।

यहां हम एक अटल सिद्धांत बताना चाहते हैं कि यदि हमारे कर्म अच्छे हैं, तो हमारा भविष्य अच्छा ही होगा और यदि हमारे वर्तमान कर्म ठीक नहीं हैं अथवा पूर्व कर्म अच्छे नहीं थे तो हमारा भविष्य भी उज्ज्वल नहीं हो सकता।

अतः दूसरों से पूछने की आदत डालने की बजाय और इस प्रकार अपना मनोबल कमजोर करने की बजाय अपने कर्मों को ही श्रेष्ठ बनाने पर ध्यान देना चाहिए। दूसरों की भलाई की ही बात सदा सोचनी चाहिए। इससे हमें दूसरों का शुभाशीर्वाद मिलेगा और हमें परमात्मा से भी सहयोग मिलेगा। अच्छे कर्मों का फल सदा अच्छा ही होता है और बुराई यदि अभी फलती-फूलती दिखाई भी देती हो तो भी उसका अंत बुरा ही होता है। यदि किसी से अच्छाई करने के बाद भी हमारे सामने उसका परिणाम दुखजनक मालूम होता है तो उसे हमें अपने किन्हीं पूर्वकाल के कर्मों का परिणाम मानकर खुशी-खुशी सहन कर लेना चाहिए। वर्तमान में हमने जो अच्छा कर्म किया है, उसका फल बुरा नहीं हो सकता क्योंकि बीज किसी एक जाति का हो और फल किसी दूसरी प्रकार का हो, ऐसा नहीं हुआ करता। अतः ‘भले का अंत भला और बुरे का अंत बुरा’ ही हुआ करता है, इस सुभाषित में अटल विश्वास रखते हुए हमें अपने कर्मों पर तथा ईश्वरीय शक्ति की सहायता पर भरोसा रखना चाहिए और पवित्रता एवं भलाई के मार्ग पर चलते रहना चाहिए।

बहुत गई, थोड़ी रही

हमें यह भी मालूम नहीं है कि हमारा यह जीवन कब तक बना रहेगा। क्या प्रतिदिन नहीं देखते कि दुर्घटना से, रोग से या अन्य किसी-न-किसी कारण से कितने ही लोगों की मृत्यु हो जाती है? तब हम क्यों न जीवन को दो दिनों का खेल मानकर खुशी से खेलें और सभी से स्नेह, सेवा, सहयोग तथा सहानुभूति से व्यवहार करें ताकि जब हम इस देह को छोड़ें तो हमारे मन में खुशी हो कि हम अपने कर्त्तव्यों को ठीक रीति से करके ही जा रहे हैं।

हमारे जीवन के कितने ही दिन तो बीत गए हैं और न जाने कितने दिन और शेष हैं। क्षण-क्षण कर्म तो हम करते ही रहते हैं। अतः भलाई इसी में है कि हम सचेत होकर स्वयं दिव्य-गुण धारण करके नर से श्रीनारायण अर्थात मनुष्य से देवता अथवा ‘फरिश्ता सीरत’ बनें।

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