आओ ज्ञान दीप जलाकर मनाएं सच्ची दीपावली

ज्ञान दीप जगाना ही सच्ची दीवाली है

दीपावली (Diwali) भारत का एक ऐसा विशेष त्योहार है, जिसे भारत के प्राय: सभी लोग हर्षोल्लास से मनाते हैं। इस दिन हर छोटे और बड़े, गरीब-अमीर और ग्रामीण लोगों के चेहरे पर खुशी दिखाई देता है। दीपावली (Dipawali) पर रात्रि को दीपों की जगमगाहट का सुन्दर दृश्य देखते ही बनता है।

इस त्योहार को मनाने को लेकर कई पौराणिक कथाएं हैं। इस त्योहार का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ? इसके बारे में अनेक किवदंतियां व पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि यह प्राचीन काल में एक समय ऐसा था, जब नरकासुर ने सारी सृष्टि पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। भगवान ने नरकासुर का नाश कर सृष्टि को उसके भय से मुक्त किया और देवताओं को नरकासुर के बंधन से छुड़ाया। अत: दिवाली से एक दिवस पहले की रात्रि को ‘नरक-चतुर्दशी’ मनाई जाती है, जिसे ‘छोटी दिवाली’ भी कहते हैं और उसके अगले ही दिन अर्थात कार्तिक की अमावस्या को बड़ी दीपावली मनाई जाती है।

दूसरी कथा यह है कि ”दैत्य राजा बलि ने सारे भू-मंडल पर अपना एकछत्र राज्य जमा लिया था। तब पृथ्वी पर आसुरीयता फैल रही थी और धर्म-निष्ठा नष्ट प्राय: हो चली थी। तब राजा बलि ने श्री लक्ष्मी को सभी देवी-देवताओं सहित अपने कारागार का बंदी बना लिया था। उस समय भगवान ने राजा बलि की आसुरी शक्ति पर विजय प्राप्त करके श्री लक्ष्मी व सभी देवी-देवताओं को कारागार की यात्नाओं से छुड़ाया।” उसी के उपलक्ष्य में तब से हर वर्ष इस रात्रि को दीपोत्सव मनाया जाता है और घरों के द्वार खोलकर श्री लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है।

इन पौराणिक कथाओं का अर्थ-बोध

ऊपर जिन दो आख्यानों अथवा कथाओं का उल्लेख किया गया है, उनका अक्षरश: अर्थ, तो अग्राह्य ही होगा, क्योंकि किसी एक व्यक्ति द्वारा श्री लक्ष्मी तथा अन्य सभी देवी-देवताओं को अथवा सारी सृष्टि को बंदी बना देना, तो सम्भव ही नहीं है। अत: वास्तव में इन दोनों कथाओं में एक बहुत महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक वृत्तान्त को लाक्षणिक भाषा में एक रूपक देकर वर्णन किया गया है। ज्ञान-दृष्टि के अनुसार नरकासुर माया अर्थात मनोविकारों ही का पर्यायवाची है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को गीता में ‘नरक का द्वार’ भी कहा गया है और ‘आसुरी लक्षण’ भी माना गया है। चूंकि इन विकारों अथवा आसुरी लक्षणों पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है, इसलिए इन्हीं का नाम इस रूपक में बलि है। गीता में माया ही को दुस्तर अर्थात ‘बलि’ कहा गया है। विश्व के इतिहास में कलियुग के अंत का समय ऐसा समय है, जब इन्हीं विकारों का सब नर-नारियों के मन पर राज्य होता है। तब सारी सृष्टि नर्क बनी होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि तक राजा बलि अथवा नरकासुर का ही सृष्टि पर आधिपत्य था। सतयुग में भारत स्वर्ग भूमि था और यहां के वासी देवी-देवता थे, परन्तु जन्म-मरण के चक्र में आते हुए वे कलियुग के अंत में सृष्टि को नर्क बनाने वाले और नर-नारी को असुर बनाने वाले इन बलि (विकारों) के आधीन हो गए थे। तब कलियुग के अंत में ईश्वरीय ज्ञान देकर परमपिता परमात्मा ने इन विकारों रूपी नरकासुर का अंत किया और सतयुग में जो मानवी आत्माएं श्री लक्ष्मी अथवा अन्य देवी-देवता नाम से अभिज्ञात थे, उन्हें इस नरकासुर के बंधन से मुक्त कराया। इसी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वृत्तान्त की याद में आज भी हर वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को छोटी दिवाली मनाई जाती है और फिर इसके बाद श्री लक्ष्मी और श्री नारायण के स्वतंत्रता पूर्वक राज्य के शुरू होने अथवा सतयुग के शुरू होने की खुशी में अगले ही दिन अमावस्या की रात को बड़ी दिवाली मनाई जाती है।

देवत्व की आसुरीयता पर विजय

कई लोग ऐसा मानते हैं कि दिवाली का त्योहार रावण पर राम की विजय के बाद मर्यादा-युक्त रामराज्य प्रारम्भ होने का स्मरोणोत्सव है। वास्तव में इसका भी वही भाव है जो कि पूर्वोक्त दो आख्यानों का है. क्योंकि रावण आसुरी शक्ति और राम ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है।

ज्ञान-दीप जगाए बिना दिवाली निर्थक

छोटी दीपावाली, बड़ी दीपावली और इन दोनों से पहले की अंधेरी रात्रि (धनतेरस) पर जो दीप-दान करता है, वह अकाल मृत्यु से बच जाता है। दीप-दान करने का भाव भी ज्ञान-दान करना है। दीपावली के इस ज्ञान पक्ष की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि हर वर्ष मिट्टी के दीप अथवा आधुनिक परिपाटी के अनुसार मोमबत्तियों और बिजली से रोशनी कर लक्ष्मी जी का आह्वान करने के बाद भी आज भारत देश में लक्ष्मी जी का स्थाई वास नहीं। यहां भ्रष्टाचार ही राजा बलि अथवा नरकासुर बनकर सब पर अपना आधिपत्य जमाए हुए हैं। इसके परिणामस्वरूप भारत के आधे से अधिक लोग निर्धनता के स्तर से नीचे का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। लक्ष्मी जी को तो ‘पद्मा’, ‘कमला’ इत्यादि नामों से भी याद किया जाता है, क्योंकि वे कमल पुष्प निवासिनी मानी गई हैं। परन्तु आज हमारे गृहस्थों के घर कमल समान पवित्र ही नहीं बने और उनके अन्तर की ज्योति ही नहीं जगी, तब भला विषय विकारों से नर्क बने घर में लक्ष्मी जी का शुभ आगमन कैसे हो सकता है?

दीपावली महारात्रिकैसे है?

यों आज भी साधक लोग दीपोत्सव की रात्रि को साधना के दृष्टिकोण से ‘महारात्रि’ मानते हैं। उनकी यह धारणा है कि इस रात्रि को मंत्र की सिद्धि की जा सकती है। अत: वे इस रात को जागकर अपनी मंत्र साधना करते हैं। यह मान्यता भी कलियुग के अन्त की घोर अज्ञान रात्रि से संबंधित है। कलियुग के इस तमोप्रधान अन्तिम चरण में जो कोई भी परमात्मा द्वारा दी हुई मार्ग प्रदर्शना (मंत्रणा) के अनुसार चलता है उसको सर्व सिद्धियां प्राप्त होती हैं। भक्त लोग यह भी मानते हैं कि जो इस रात्रि को आलस्य के वश सोया रहता है, वह श्री लक्ष्मी के आशीर्वाद से वंचित रहता है। परन्तु वास्तव में यह बात भी आध्यात्मिक जागृति के बारे में कही गई है। कलियुग के अन्तिम चरण में जो व्यक्ति अज्ञान-निद्रा में सोए रहते हैं, वे आने वाले सतयुगी श्री लक्ष्मी और श्री नारायण के सुख पूर्ण स्वराज्य में सौभाग्य का स्थान प्राप्त नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, ईश्वरीय ज्ञान लेने के अतिरिक्त संगम युग में ईश्वरीय ज्ञान-दान देने का भी बहुत महत्त्व माना गया है। इसलिए भी दीपावली की महारात्रि को दीपदान करने का भी बड़ा महत्त्व है। इस दिन कुछ लोग तो दीपकों को अपने मस्तक पर घुमाकर दान कर देते हैं। वे समझते हैं कि इससे सर्व अनिष्ट से निवृत्ति होती है। स्पष्ट है कि सर्व अनिष्ट निवृत्ति तो ज्ञान द्वारा आत्मा का दीप जगाने से ही हो सकती हैं। संगम युग में मनुष्यात्माओं का जीवनदीप अलौकिक होने के फलस्वरूप ही नर श्री नारायण और नारी श्री लक्ष्मी पद को अथवा देवता या देवी पद को प्राप्त करते हैं। तभी सतयुग का आरम्भ होता है। इसी के उपलक्ष्य में दिवाली के अवसर पर लोग अपने घरों पर पताका फहराते हैं और यह भी कहा जाता है कि इसी दिन राजा पृथु ने पृथ्वी पर अपना चक्रवर्ती राज्य प्रारम्भ किया था और यह पृथ्वी हरी-भरी तथा सुख समृद्धि पूर्ण हुई थी, जबकि इससे पहले यहां पर दरिद्रता थी।

बड़ी दीपावली सतयुगी श्री नारायण राज्य की यादगार

दिवाली के अवसर पर लोग प्राय: नए कपड़े पहनते हैं, कुछ नए बर्तन खरीदते हैं और पुराने बही खाते अथवा आय-व्यय पंचिकाओं को बन्द कर के नए बही खाते शुरू करते हैं। ये सब नई सृष्टि में सुख-शान्ति पूर्ण नए युग के आरम्भ के सूचक हैं।

अब फिर से कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के संगम का समय चल रहा है जबकि हमें अपने पुराने हिसाब-किताब को समेटने का पुरुषार्थ करना चाहिए और ईश्वरीय ज्ञान तथा योग के द्वारा घर-घर में ज्ञान-दीप जगाने की सेवा करनी चाहिए क्योंकि सर्व अनिष्ट से निवृत्ति का मात्र यही एक साधन है। इससे ही भारत में दरिद्रता समाप्त होगी और यहां सुख-शांति के सतयुग के दिन आएंगे। दीपावली को सही रीति से मनाने का तरीका यही है।

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