गुणग्रहकता

सद्गुणों से ही मनुष्य देवता बनता है और उनको दबा देने से असुर। गुण-ग्रहक मनुष्य ही वास्तव में प्रभु-पसंद, लोक-पसंद और मन-पसंद होता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि जैसे हंस मोती चुगता है अथवा क्षीर ले लेता है और नीर छोड़ देता है, वैसे ही वह भी सद्गुण ग्रहण कर ले और अवगुणों को त्याग दे।

देखो तो सुंदर-सुंदर फूल सुगंध बिखेरते हैं, वह सुगंध उनमें पैदा कहां से होती है? उन्हें जो खाद दी जाती है, वह तो बहुत ही दुर्गंधपूर्ण होती है और कालिमा, कुरूपता तथा कठोरता को लिए होती है। परंतु पुष्प उसमें से भी किसी प्रकार कोमलता, रंग, सौंदर्य और सुगंध लेकर ऐसा तो खिल जाता है कि उसे देखने वाले के मुख पर मुस्कान, नेत्रों में ताज़गी और मन में हर्ष व आनंद भर जाता है!

संसार में मनुष्य के सामने भी अनेक प्रकार की परिस्थितियां आती हैं और उसका संपर्क भी विभिन्न प्रकार के लोगों से होता है। यदि वह उन परिस्थतियों में भी गुण-ग्रहकता का दृष्टिकोण बना ले और हरेक मनुष्य में जो गुण हैं, उन ही को देखे तो एक-एक व्यक्ति से, एक-एक गुण लेते हुए भी वह सर्वगुण संपन्न बन सकता है।

सचमुच, मनुष्य की दृष्टि और वृत्ति पर बहुत-कुछ निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि एक व्यक्ति अपने दो मित्रों को स्नेह-भरे स्वर में भोजन के लिए आमंत्रित करते हुए कहता है कि ‘भाई, कभी हमारे गरीबखाने में भी पधारें। काफी समय से हम लोग मिले भी नहीं हैं। कुछ हंसेंगे, बहलेंगे और बातचीत भी करेंगे।’ दोनों मित्र निमंत्रण स्वीकार कर नियत समय पर उसके यहां भोजन करने जाते हैं और वह मेजबान, बिना किसी तक्कलुफ के, परंतु प्रेम और सादगी से बनाया गया भोजन उनके आतिथ्य में पेश करता है। वापस लौटते हुए उनमें से एक व्यक्ति दूसरे से कहता है, ‘इसने तो हमें निमंत्रण देकर सादा-सा खाना ही खिलाया है। मैं दोबारा तो कभी भी इसका निमंत्रण स्वीकार करके अपना समय नष्ट नहीं करूंगा।’ दूसरा उसे उत्तर में कहता है, ‘अरे भाई, यह क्या कह दिया? जहां अपनापन होता है, वहां तक्कलुफ थोड़े ही होती है। उसने तो हमें अपने घर का ही समझ कर जैसा हो सका वैसा खिलाया है। तुम यह नहीं देखते कि उसमें कितना स्नेह था? अरे भाई! खाने का निमंत्रण तो एक बहाना ही था। वास्तव में भाव तो यह था कि दिल खोल कर बातें करेंगे।’ देखिए तो एक गुणग्रहक व्यक्ति हर्षित हो रहा है और दूसरा अवगुण उठा कर जल-भुन रहा है।

सद्गुणों का सागर तो एक ज्योतिस्वरूप परमपिता परमात्मा ही है। आवश्यकता इस बात की है कि हम उसकी दी हुई शिक्षा को धारण करें।