शांतिवन परिसर में पहुंचते ही यात्रा की थकान काफूर हो गई। शिव पिता की अनुभूति पाते ही अतिशय स्फूर्ति स्पंदित हो उठी। हमारे उत्साह की वृद्धि का पारावार नहीं था। सबकुछ पा लेने का संतोष, हमारे आल्हादित चेहरे से परिलक्षित हो रहा था। ऐसे लग रहा था जैसे सम्पूर्ण सृष्टि के सर्व खजानों के बादशाह हम हैं क्योंकि बाप के घर कुछ नहीं करना था, बस मौज ही मौज मनानी थी।
‘वो मेरा बाबा है‘
यह प्राप्ति यहीं नहीं रुकी, अव्यक्त बाप दादा से मिलन के दिन एक गीत के दो शब्द ही कानों में पड़े कि जीवन की तपस्या सफलीभूत हो गई। ‘वो मेरा बाबा है’ सुना और लगा जैसे मुझे पंख लग गए हैं। मैं निश्चित तौर पर बाप दादा के पास था। पिछले 9 वर्षों से योग की अवस्था निरंतर नहीं बना पा रहा था। चाहना रखता था, अनुभव करना चाहता था, लेकिन माया योग में बैठते ही, नाक-कान मरोड़ कर व्यर्थ के चिंतन में पहुंचा देती थी। इस गीत से मानो संजीवनी मिली। बाप दादा के मिलन का प्रत्यक्ष फल देखिए, अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति सहज ही हो गई। आनंद के सागर, प्रेम के सागर के संग का रंग सहज चढ़ गया।
बाबा की पालना पाकर, भाई-बहनों के संग का रंग लेकर, खजानों को समेटे हुए वापसी की यात्रा शुरू हुई। मधुबन (शांतिवन) ने हमसे हमारा सम्पूर्ण बोझ छीन लिया और हमें पूरे हल्केपन के साथ विदा किया। अब तो आलम यह है कि जब कभी भी व्यर्थ संकल्प जीवन डगर को व्यथित करते हैं, तो गीत के वे बोल मानस पटल पर उभर कर बाबा की याद और मदद का अहसास कराते रहते हैं। बाबा का लाख-लाख शुक्रिया।