जब हम भौतिक जगत की बात करते हैं, तो गरीब होना किसी अभिशाप से कम नहीं है। अभिशाप समझी जाने वाली इस गरीबी को मिटाने के लिए मनुष्य ने अपनी अंतः और बाह्य दोनों अवस्थाओं का पतन कर लिया है। बाहरी सुख-सुविधाओं और भौतिक विलासिता की वस्तुओं को ही उसने सच्चा सुख मान लिया है जो कि क्षणभंगुर (क्षणिक) है।
ज्यादा धन कमाने के लालच से नैतिक पतन
आज संसार का प्रत्येक मनुष्य धनवान होना चाहता है। सवेरे उठने से लेकर रात को सोने तक उसका सारा समय सिर्फ इन्हीं बातों में व्यर्थ जाता है कि किस तरह से साम-दाम-दंड-भेद को अपनाकर भी वो ज्यादा से ज्यादा धन कमाए। परंतु ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की लालच में वह स्वयं का, स्वयं के परिवार का, आने वाली पीढ़ियों का और सारे समाज का इस तरह से नैतिक पतन करता है कि कई जन्मों तक समाज इस विकृति से बाहर नहीं आ पाता।
100 रुपए कमाने के लिए हजार पाप
आज शायद ही कोई ऐसा मनुष्य होगा जो धन कमाने के लिए झूठ, फरेब, धोखाधड़ी या जालसाजी नहीं करता होगा। आज के मनुष्य के लिए दूसरों को दुख देना रोज़मर्रा का काम हो गया है। ‘ईमानदारी’ शब्द सिर्फ किस्से-कहानियों में रह गया है और मानव 100 रुपए कमाने के लिए कम से कम एक हजार बार पाप करता है। पाप कर्म से कमाए गए पैसे से अपने को बहुत भाग्यशाली मानने लगता है और अपने लिए अल्पकाल के सुख के साधन इकट्ठे करने लगता है।
दूषित धन से संतान का दूषित मन
ऐसी मानसिक विकृति के साथ विकारी भाव से ग्रसित मनुष्य विकारयुक्त संतान उत्पन्न करता है तथा गलत तरीके से कमाए गए धन से ही अन्न खरीदता है। दूषित धन से खरीदा गया अन्न भी दूषित हो जाता है, जिसको खाकर मन में भांति-भांति के विकार उत्पन्न होते हैं और तन पर भी बुरा असर पड़ता है। ऐसे दूषित धन का उपयोग जब संतान की पालन में होता है, तो वयस्क होती संतान में अनेक प्रकार की विकृतियां और मनोविकार उत्पन्न होने चालू हो जाते हैं। उनकी विकृत मांगों को पूरा करने के लिए वह और भी भिन्न-भिन्न पाप कर्मों में लिप्त होता जाता है। गलत तरीके से पैसे कमाने वाले मलिन (खराब) बुद्धि माता-पिता यह समझ ही नहीं पाते हैं कि उनकी लालन-पालन में कमी क्या रह गई है। यह वृत्तांत आज किसी एक परिवार का नहीं बल्कि सारे समाज का है, जिसकी वजह से चारों तरफ अपराध और दानवीय वृत्ति का बोलबाला है।
धनवान होने के लालच में मनुष्य आत्मा पापकर्म करती जाती है और अपने सर पर बहुत सारे पापों का बोझा चढ़ा लेती है। जीवन के अंतिम समय में इसी बोझ से बोझिल वह पश्चाताप की अग्नि में झुलसती हुई शरीर त्याग करती है और पाप कर्म की बहुत सारी भोगना अगले जन्म में भोगने के लिए अपने साथ भी ले जाती है। अंततः वह गरीब घर में पैदा होकर अपने नीच कर्मों के फलस्वरूप और भी अधोगति को प्राप्त होती है।
श्रेष्ठ कर्मों की कमाई
दूसरी तरफ, परमपिता परमात्मा शिव से सृष्टि-चक्रों का सत्य ज्ञान प्राप्त करने वाली आत्माओं के लिए अंतिम जन्म में गरीब होना वरदान रूप सिद्ध होता है। वे जान जाती हैं कि धन की गरीबी का कारण है श्रेष्ठ कर्मों की गरीबी। इसके लिए वे श्रेष्ठ कर्म कमाने में रत हो जाती हैं। जो आत्माएं, परमपिता-परमात्मा शिव द्वारा सिखाए गए राजयोग और कर्मों की गुह्य गति को जान लेती हैं, वे अपना पुण्य का खाता बढ़ती जाती हैं। पुण्य और पाप का ज्ञान ना सिर्फ नए पाप कर्म करने से रोकता है बल्कि नए पुण्य बढ़ाने में भी सहयोग देता है। गरीब होते हुए भी, ईमानदारी और सच्चाई-सफाई के साथ कमाया गया धन इस प्रकार बरकत देता है कि स्वयं को, पूरे परिवार को और समाज को सुख-शांति-आनंद-प्रेम की निरंतर अनुभूति होती रहती है। जब ईमानदारी से कमाया गया धन मानव-समाज और प्रकृति को सतोप्रधान बनाने अर्थ ईश्वरीय कार्य में लगाया जाता है, तो सर्व विघ्न स्वतः ही समाप्त होकर सफलता निश्चित हो जाती है।
परमपिता-परमात्मा शिव द्वारा दी गई श्रीमत प्रमाण देह और देह के संबंधों और पदार्थों से उपराम और नष्टोमोहा होकर जब ऐसी आत्मा शरीर का त्याग करती है, तो धर्मराज को भी उसे नमस्कार करना पड़ता है। उस आत्मा के पुण्य कर्म उसको पूरे 21 जन्मों के लिए स्वर्ग के राज्य का अधिकारी बना देते हैं।
संसार के मनुष्यों को यदि गरीब-निवाज परमपिता परमात्मा शिव का ज्ञान समझ में आ जाए और उसे अपने जीवन में उतार लें, तो वे गरीब परिवार में जन्म लेकर भी कभी गरीब नहीं मरेंगे और जीते जी स्वयं को पाप कर्मों द्वारा श्रापित करने से बच जाएंगे। विश्व की सारी आत्माओं को समान रूप से यह अधिकार प्राप्त है कि कलियुग के अंत के भी अंत समय में, इस संगमयुग में, जब स्वयं भगवान धरा पर आकर सच्चा-सच्चा गीता ज्ञान और जीवन जीने की कला सिखा रहे हैं, तो इसे समझ कर अपने जीवन में धारण कर, भाग्य बना लें और सदा के लिए सभी प्रकार की गरीबी से मुक्त हो जाएं।