आनंदमय जीवन के सूत्र

आनंदमय जीवन के सूत्र

जब किसी व्यक्ति का परलोक गमन हो जाता है, तो कहा जाता है कि 'अमुक व्यक्ति ने देह छोड़ दिया।' यहां सवाल उठता है कि देह को पकड़ किसने रखा था, जो छोड़ दिया। पकड़ने वाले ने जब तक पकड़े रखा, शरीर चलता रहा। जब उसने छोड़ दिया, तो धराशायी हो गया। यह पकड़ने और छोड़ने वाला कौन है? दिखता क्यों नहीं है?

शरीर में मूल तत्वों का और आत्मा में मूल गुणों का स्तर

वास्तव में शरीर को धारण करने वाली और छोड़ देने वाली आत्मा है। आत्मा अदृश्य है, उसे एकांत में, अंतर्मुखी होकर अनुभव किया जा सकता है। शरीर तो दृश्यमान है, जो पांच तत्वों से मिलकर बना है। इन तत्वों का शरीर निर्माण में निश्चित अनुपात है, जैसे पानी 67 प्रतिशत और पृथ्वी 33 प्रतिशत है। हवा, अग्नि और आकाश का वज़न भले ही मापा नहीं जा सकता परंतु इनका भी निर्धारित अनुपात रहता है। किसी भी तत्व की मात्रा यदि कम हो जाए या बढ़ जाए तो शारीरिक बेचैनी का कारण बनती है। शरीर को चलाने वाली अदृश्य आत्मा में भी मूल रूप से 7 गुण विद्यमान हैं, जिन्हें वह ईश्वरीय देन के रूप में अपने साथ लेकर आती है। इन 7 गुणों (ज्ञान, पवित्रता, शांति, प्रेम, सुख, आनंद, शक्ति) में से किसी एक का भी स्तर कम होने पर आत्मा भी बेचैनी का अनुभव करती है।

शरीर के मूल तत्वों की पूर्ति

उदाहरण के लिए, हमने बहुत शारीरिक श्रम किया और शरीर में पृथ्वी तत्व का उपभोग होकर उसका स्तर कम हो गया, तो हमें भूख लगती है। हम भोजन खाते हैं परंतु कितना? उतना ही जितने से निर्धारित अनुपात की पूर्ति हो जाए। इसी प्रकार, हमने खूब दौड़ लगाई, पसीना आया और शरीर में जल तत्व का उपयोग होकर उसका स्तर नीचे आ गया, तो हमें खूब प्यास लगती है। फिर हम पानी पीते हैं, परंतु कितना? उतना ही जितने से जल तत्व का निर्धारित अनुपात पूरा हो जाए। यही बात अग्नि, हवा, आकाश आदि तत्वों पर भी लागू होती है।

ज़रुरत है शांति की कमी की पूर्ति की

जैसे शरीर की शक्ति कर्म में लगती है और फिर उसकी पूर्ति करनी पड़ती है, इसी प्रकार आत्मा की शक्तियों या गुणों का स्तर भी कर्म में आने पर नीचे चला जाता है, जिसकी पूर्ति करनी अति आवश्यक होती है। जैसे मान लीजिए, हम किसी ऐसे माहौल में कर्म कर रहे हैं, जहां शोरगुल है, नकारात्मक वातावरण है, कोई अपशब्द या अपमानजनक शब्द प्रयोग कर रहा है, हम पर इल्जाम लगाया जा रहा है या संशयात्मक नज़रों से देखा जा रहा है। हमारी उचित बात को भी ठुकराया जा रहा है या पक्षपात किया जा रहा है। इस प्रकार के वातावरण में रहने से आत्मा का शांति का स्तर काफी नीचे आ जाता है। जैसे पानी का स्तर नीचे आने पर हम पानी की मांग करते हैं, इसी प्रकार फिर आत्मा भी बार-बार शांति की मांग करती है। अंदर से आवाज़ आती है, शांति चाहिए, कहीं शांति के स्थान पर जाना चाहिए, शांति के माहौल की सख्त ज़रुरत है आदि-आदि। प्यास लगने पर पानी तो हर जगह सुलभ है परंतु शांति इतनी आसानी से सुलभ नहीं हो पाती। शांति की न कोई प्याऊ है, न आरओ, न बोटल में बिकती है, न नदी, कुएं, तालाबों में बहती है। यदि मुनष्य मंजिर में जाता है, तो वहां भी अल्पकाल की शांति मिलती है। जब तक वहां बैठा है, शांति है, बाहर निकलते ही अशांति पुनः घेर लेती है। यह तो ऐसे ही है कि जब तक डॉक्टर की दुकान में रहे, खांसी ठीक रही, घर आए तो पुनः चालू हो गई। परंतु दवा तो ऐसी चाहिए कि घर में भी खांसी न आए। तो हम पुनः उस बात पर आते हैं कि शांति का यह स्तर कैसे प्रप्त हो। अंदर से बार-बार शांति की मांग उठ रही है और पूर्ति का कोई साधन दिख नहीं रहा है, तो क्या किया जाए?

शांति की मांग दबाई जाती है, पूर्ण नहीं की जाती

ऐसे में व्यक्ति बहुधा भौतिक साधनों में शांति खोजना चाहता है। किसी मित्र से वार्तालाप करके, किसी से सोशल मीडिया पर चैट करके, कोई टीवी शो देखके, बाजार में शॉपिंग करके, मनपसंद भोजन खाकर या अन्य इसी प्रकार के साधनों द्वारा शांति की मांग को तृप्त करना चाहता है, परंतु इनमें से कोई चीज़ शांति के स्तर को पूर्ण नहीं करा पाती, हां, कुछ देर के लिए भीतर की आवाज़ को दबा देती है, उधर से ध्यान हटा देती है या उसे भुला देती है। दिन तो इस प्रकार बीत जाता है, परंतु जैसे ही व्यक्ति रात्रि के एकांत में जाता है, शांति की वह प्यास पुनः जाग उठती है। शांति की कमी बेचैन करने लगती है। चिंता करते, खालीपन को झेलते, करवटें बदलते आधी रात या कमी तो सारी रात भी गुजर जाती है। शांति से खाली हुई जगह को कोई भी भौतिक प्रयास भर नहीं पाता है। फिर व्यक्ति को एकांत से भी डर लगने लगता है। क्योंकि लोगों की भीड़ में, भीतर की जो मांग दबी रहती है, वह एकांत में जागकर पीड़ा को बढ़ा देती है। इसका समाधान क्या है?

समाधान है राजयोगी जीवनशैली में

इसका समाधान है राजयोग। राजयोग एक ऐसी जीवन पद्धति है, जिसमें शरीर और आत्मा दोनों का संतुलित पोषण होता है। इसमें हम शरीर को स्वस्थ रखने के साथ आत्मा को भी स्वस्थ रख पाते हैं। शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ आत्मा की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर पाते हैं। राजयोग में हम जान जाते हैं कि जैसे प्रतिदिन शरीर को भोजन, मोबाइल को चार्जिंग, गाड़ी में पेट्रोल ज़रूरी है, उसी प्रकार आत्मा की भी चार्जिंग ज़रूरी है। आत्मा का चार्जर है परमपिता परमात्मा। आत्मा में शांति का जो लेवल कम हुआ है, वो पिता परमात्मा से जुड़कर ही पूर्ण हो सकता है। जैसे खेत को यदि कुएं से जोड़ दिया जाए, तो उसमें पानी भर जाता है। इसी प्रकार आत्मा को परमात्मा से जोड़ दिया जाए, तो उसमें भी शांति भर सकती है। जोड़ने के लिए सबसे पहले देह से न्यारा होकर आत्म चेतना में बैठने की आवश्यकता है। आत्म चेतना में स्थित होकर हम परमात्मा पिता को उनके घर परमधाम में याद करते हैं, तो उनकी शांति की किरणें आत्मा में भरने लगती हैं। प्रारम्भ में यह अभ्यास हमें यह मदद करता है कि शांति का जो स्तर कम हुआ है, हम उसे भर पाते हैं। अगले कदम में हमारी यह मदद करता है कि उस नकारात्मक वातावरण का हम पर बुरा प्रभाव ही ना पड़े। हम शांति के स्तर पर वार होने ही ना दें। परमात्मा से निरंतर जुड़ाव से भरपूरता बनी ही रहे। तीसरे कदम में हम इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि हमारी आंतरिक शांति के प्रकंपनों से वो नकारात्मक वातावरण ही धीरे-धीरे बदल कर हमारे अनुकूल होने लगता है। इस प्रकार, राजयोगी जीवन शैली आत्मा को अंदर से सशक्त करती है।

हम बन जाते हैं वातावरण के रचयिता

यह बात केवल शांति के गुण के लिए नहीं बल्कि आत्मा के अन्य सभी गुणों पर भी लागू होती है। मान लीजिए, हम किसी ऐसे माहौल में रह रहे हैं, जहां आपसी प्रेम नहीं है, नफरत है, तिरस्कार है, दुत्कार है। ऐसे में आत्मा में प्रेम का स्तर कम हो जाता है। इस स्तर की पूर्ति को यदि वह भौतिक वस्तु या व्यक्तियों में खोजती है, तो अल्पकालिक राहत मिलती है क्योंकि वस्तुएं तो जड़ हैं, उनमें प्रेम होता नहीं है और व्यक्ति स्वार्थी और कमजोर हैं, उनके प्रेम में स्थायित्व नहीं है। अगर प्रेम का यह स्तर पूर्ण न किया जाए तो अंदर बचैनी बनी रहती है, इसलिए जैसे आत्मा का कनेक्शन परमात्मा से जोड़कर हमने शांति का स्तर पूर्ण किया, ऐसे ही प्रेम का भी कर सकते हैं। यहां भी हमारे इस प्रयास के तीन कदम हैं। पहले कदम में हम प्रेम के स्तर में आई कमी को परमात्म प्यार से भरते हैं। दूसरे कदम में हम कमी को आने ही नहीं देते अर्थात परमात्मा के प्रेम के गहरे अहसास में डूबे रहकर उस वातावरण से अप्रभावित हो जाते हैं और तीसरे कदम में हम परमात्म प्रेम के दाता बन उस वातावरण को ही परिवर्तित कर सर्व के अनुकूल बना देते हैं। यही अभ्यास अन्य आत्मिक गुणों जैसे पवित्रता, आनंद, शक्ति आदि के लिए भी अपनाना है। इससे हम वातावरण के अधीन न रहकर उसे अपने अनुसार रचने वाले बन जाते हैं।

आध्यात्मिक शून्यता

हम जानते हैं, आज के समय में बहुत सारी बीमारियां मनो-कायिक (PSYCHOSOMATIC) हैं। ये पहले आत्मा में आती हैं और बाद में इनके लक्षण शरीर में प्रकट होते हैं। आत्मा में आने वाली बीमारी वास्तव में, आत्मा के निहित गुणों के स्तर का कम होना ही है। पीजीआई चंडीगढ़ के मानद प्रध्यापक डॉ एनएन वीग कहते हैं, ‘आधुनिक जीवनशैली से प्राप्त सभी बीमारियां’ आध्यात्मिक शून्यता के कारण होती हैं। यह शून्यता, विवेक शून्यता को जन्म देती है, जिसमें मनुष्य की सार-असार को परखने की शक्ति नष्ट हो जाती है।’ जैसे कि शरीर में मिनरल, विटामिंस, कैल्शियम के मूल स्तर के कम होने से कहीं दर्द या चक्कर या कमजोरी आदि होने लगते हैं, इसी प्रकार, आत्मा यदि 6 महीने तक लगातार मूल गुणों की कमी को झेलती रहे, तो 7वें मास अवश्य ही किसी घातक बीमारी के लक्षण शरीर में प्रकट होने लगते हैं, ऐसा वैज्ञानिक शोध बताती हैं। फिर इनके इलाज के लिए हम गोलियों के रूप में जो केमिकल्स लेते हैं, वे आत्मा तक तो नहीं पहुंच पाते, मूल कमी की पूर्ति तो नहीं कर पाते, हां, उभरे हुए लक्षणों को दबाकर अपने सहप्रभाव से कुछ नई बीमारियों को अवश्य प्रकट कर देते हैं। बीमारियों को दबाने और उभारने के इस क्रम में कितनी ही नई-नई बीमारियां रोज प्रकट हो रही हैं। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि हम अन्तर्मुखी बन आत्मा के मूल गुणों को अनुभव करें। उन्हें बार-बार अनुभव करना ही उन्हें बढ़ाना है। यदि हम उन्हें बार-बार अनुभव नहीं करते, तो वे सुषुप्त हो जाते हैं और हम उन्हें बाहरी जगत में ढूंढ़ने की नाकाम कोशिश करने लगते हैं। ऐसी निराशा-हताशा से बचने का एकमात्र उपाय है प्रतिदिन कुछ घिड़यां निकाल कर अपने आत्मस्वरूप को देखना, अपने से बातें करना, अपने एक-एक मूल गुण का चिंतन करना, उसकी अनुभूति में डूबना, उसके प्रकंपन फैलाना आदि-आदि। इस अभ्यास के दौरान परमात्मा पिता के गुणों से हमारा मेल होकर सोने में सुहागा हो जाएगा और हम अंदर से भरपूर, शरीर से स्वस्थ और स्वभाव से सकारात्मक होकर आनंदमय जीवन व्यतीत कर पाएंगे।

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