इस अंतिम शिक्षा का अंतिम शब्द है निरअहंकारी। स्वर्ग की दौड़ में पुरुषार्थी सब परीक्षाएं काम, क्रोध, लोभ, मोह की पास करते हुए अंत में अहंकार की पहाड़ी से लुढ़कता है और पुनः नर्क में जा गिरता है। बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान, संत, धर्मात्मा या किसी भी आध्यात्मिक संस्था के प्रमुखों के सामने सबसे बड़ी परीक्षा है, अहंकार पर विजय। इस विजय के लिए अहंकार के सूक्ष्म रूपों को समझना अति आवश्यक है। किस-किस प्रकार से अहंकार वार कर सकता है, यह पहचान न होने के कारण ही धोखा खाते हैं। यहां हम अहंकार के 13 प्रकार लिख रहे हैं तथा उन पर विजय पाने के उपाय भी लिख रहे हैं।
देह का अहंकार: अपने को शरीर समझना और अपने परिचय में देह के नाम, आयु आदि का स्मरण रहना, देहाभिमान कहलाता है। भगवानुवाच, पहले है देह भान, फिर देहाभिमान और उसी का बड़ा रूप देहअहंकार है। इसलिए जब भी देह की स्मृति में देही भूली हुई है, तो निश्चित है कि देह अहंकार सवार है। यदि देह अहंकार सवार है तो विकर्म, पाप निरंतर होते ही रहेंगे। इसलिए निरंतर देही अभिमानी बनने का अभ्यास करें। पुनः पुनः स्मृति दिलाएं कि मैं एक आत्मा हूं। एक महान आत्मा हूं। हर कर्म करते हुए अपने से प्रश्न पूछते रहें कि कौन बोल रहा है, कौन देख रहा है, कौन सुन रहा है, कौन सोच रहा है, कौन कर्म कर रहा है। इससे स्वतः देह अहंकार पर विजयी होकर देही अभिमानी बन जाएंगे।
पद का अहंकार: सांसारिक तौर पर जो भी पद या ओहदा प्राप्त होता है, उसका भी मनुष्य को अहंकार आ जाता है। बात-बात में पद का अहंकार मनुष्य दर्शाता है। उसकी हर बात, भाव व सभी क्रिया-कलाप पद के अहंकार को दर्शाते हैं। इसलिए कभी भी इस अहंकार का प्रदर्शन न करें क्योंकि रावण की तरह अहंकारी का नाश होता है।
इस पर विजय पाने के लिए सदैव यह स्मृति रखें कि यह सृष्टि एक नाटकशाला है। इस नाटकशाला में हम सब आत्माएं भाई-भाई समान हैं, लेकिन थोड़े समय के लिए हम समान भाइयों को अलग-अलग पार्ट मिला है, इसलिए अस्थाई पार्ट का अभिमान क्या करना। पार्ट तो कभी भी बदल सकता है।
उपलब्धियों का अहंकारः जीवन में भागदौड़ कर, मेहनत कर मनुष्य कुछ उपलब्धियां हासिल कर लेता है। उनका भी उसको पुनः पुनः स्मरण कर अभिमान चढ़ जाता है। जीवन में कुछ बड़े-बड़े पुरस्कार, कुछ मैडल, कुछ प्रतियोगिताएं जीतकर बहुत वाह-वाह और सम्मान मिलता है, तो स्वतः ही मनुष्य को उसका अभिमान आ जाता है।
सदैव समझें कि ये उपलब्धियां तो विनाशी हैं। इनके अभिमान से मनुष्य गिरता ही है। जीवन की असली उपलब्धि है, आध्यात्मिकता के शिखर पर पहुंच कर परमात्मा पिता से विजय मैडल प्राप्त करना। विजय माला का मणका बनना। चाहे कितने भी अवॉर्ड प्राप्त किए हों, कितनी बार वर्ल्ड गिनीज बुक में नाम दर्ज कराया हो, लेकिन परमात्मा की विजय माला का मणका नहीं बने, तो ये सब अवॉर्ड किस काम के। इसलिए भावना एक मात्र इस उपलब्धि की रखनी है कि मुझे विजय माला का मणका बनना है।
रूप-पर्सनैलिटी का अहंकारः कुछ लोगों को शारीरिक सुंदरता जन्म से ही प्राप्त होती है। वे रोज बार-बार आइने में अपने रूप को निहारते हैं। अन्य भी उनके व्यक्तित्व पर आकर्षित होते हैं। यदा-कदा उन्हें इस दैहिक रूप की प्रशंसा भी प्राप्त होती है। इन सब बातों से उनको अपने रूप या व्यक्तित्व का अभिमान आ जाता है, जो कि सर्व विकारों को उत्पन्न करता है।
इससे छूटने के लिए देह की वास्तविकता पर विचार करें कि यह देह पंच तत्वों का पुतला है। इसके अंदर तो हाड, मांस, खून और दुर्गंध भरी है। इसके नव दरवाजों से गंदगी ही निकलती है। तो इस देह का क्या अभिमान करना! इसके अंदर चमकती हुई मणि, जो कोहीनूर से भी अधिक मूल्यवान है, उस आत्मा का अभिमान ही सच्चा अभिमान है। उसी के रूप को बार-बार बुद्धि रूपी नेत्र से देखें या निहारें।
शिक्षा का अहंकारः कई व्यक्तियों का शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा होता है। उन्होंने कई डिग्रियां प्राप्त की होती हैं। वे जब भी अपना परिचय देंगे, तो शैक्षणिक डिग्री ज़रूर बताएंगे। उच्च स्तरीय आईएएस, आईपीएस, पीएचडी आदि डिग्रियों से सुशोभित व्यक्ति तो निम्न स्तरीय शैक्षणिक योग्यता वालों व अनपढ़ों से बात करना भी पसंद नहीं करते। इतना अहंकार चढ़ जाता है तथा दुर्व्यवहार भी कर देते हैं।
याद रखिए, सबसे बड़ी डिग्री है मानवीय मूल्यों की डिग्री। वह डिग्री गांव के किसी भोले-भाले इंसान में हो सकती है। वह डिग्री है दूसरों का सम्मान करना, निःस्वार्थ सेवा करना, मधुरभाषी होना, सर्व का सहयोगी होना, गुणग्रहक होना आदि-आदि। यदि किसी उच्च स्तरीय डिग्रीधारक में ये डिग्रीज नहीं हैं, तो वास्तविकता यह है कि वह अशिक्षित ही है। उसके दुर्गुण समाज के प्रणियों को परेशान ही करते रहेंगे।
स्वस्थ जीवन का अहंकारः कुछ लोगों को सौभाग्यवश स्वस्थ जीवन प्राप्त होता है। उसके अहंकार वश जो प्रायः बीमार व रोगग्रस्त रहते हैं, उन पर वो हंसते हैं और अपने स्वस्थ तन पर इतराते हैं। याद रहे, स्वस्थ जीवन पूर्व में किए हुए कुछ श्रेष्ठ कर्मों का परिणाम है और इसपर अहंकार पुनः पतन का कारण बन सकता है। कई बार अहंकारी व्यक्ति भी अपने अहंकार से स्वास्थ्य को खराब कर लेते हैं। इसलिए अभिमान ना करके, स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले परमात्मा का बार-बार शुक्रिया करें।
संपत्ति का अहंकार: कुछ लोगों के पास धन-संपत्ति, मकान-कोठियां, जमीन, बाग-बगीचे आदि हैं, पुनः पुनः उनकी स्मृति से उनका भी अहंकार मन पर छा जाता है। अगर, कोठी बहुत सुंदर है, तो कई बार उसकी याद आएगी और उसका वर्णन करेंगे। इसी प्रकार अन्य संपत्ति का भी उल्टा नशा चढ़ जाता है और गरीब व्यक्तियों से उस नशे के कारण दुर्व्यवहार करते हैं। याद रखें, परमात्मा को गरीब नवाज कहते हैं। खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे, यहां कुछ भी अपना समझना मिथ्या अहंकार है। न यह मेरा था, न रहेगा।
ज्ञान व आयु का अहंकारः कई पुरुषार्थी अपनी वरिष्ठता को ज्ञान और आयु के हिसाब से आंकते हैं। वे सोचते हैं, मैं पुराना हूं, मैं बहुत अनुभवी हूं, मैं वरिष्ठ भाई व वरिष्ठ बहन हूं। दूसरे चाहे कितने भी अधिक ज्ञान-योग में प्रवीण हों, फिर भी वे उनको अपने से कनिष्ठ समझ व्यवहार करते हैं। ज्ञान-योग की आयु से अपनी वरिष्ठता को कभी भी नहीं आंकें। हो सकता है, कोई कम आयु में भी ज्ञान-योग और सेवा में हमसे काफी आगे हो, लास्ट सो फास्ट हो। हमें उसे भी वरिष्ठ समझ रिगार्ड देना चाहिए।
गुणों का अभिमानः यह बहुत सूक्ष्म अभिमान है। मान लीजिए, किसी को जीवन में अनेक दिव्य गुण प्राप्त हैं। कभी-कभी गुणधारी को उन गुणों का भी अभिमान हो जाता है। अपने त्याग का भी अभिमान आ जाता है, अपने मर्यादित जीवन का भी अभिमान आ जाता है।
इसलिए सदैव याद रखें कि ये गुण परमात्मा की देन हैं। इन्हें परमात्मा की देन समझ उन्हीं के कार्य में लगाना हैं। कभी भी इनका अभिमान नहीं करना है। त्याग का भी त्याग करना है। वर्णन नहीं करना है। सदा गुप्त पुरुषार्थी बनना है।
भाषण का अभिमानः कुछ लोगों को वक्तव्य कला प्रप्त है। उनका भाषण बहुत प्रभावशाली होता है। जहां भी प्रवचन करते हैं, उनकी खूब प्रशंसा होती है। प्रशंसा बार-बार प्राप्त होने से फिर वो उसे अपनी विशेषता समझ लेते हैं, जिससे अहंकार आ जाता है।
भाषण करने से पूर्व सर्वशक्तिवान, ज्ञान भंडार परमात्मा को याद कर फिर प्रवचन करें और उसकी याद में करें और यह निश्चय रखें कि मेरे द्वारा वो ही करवा रहा है। इससे अभिमान नहीं आएगा और प्रवचन भी प्रभावशाली होगा। प्रवचन के बाद जितनी भी प्रशंसा मिले, उसे परमात्मा को ही सुपुर्द कर दें। खुद स्वीकार ना करें।
टीचर या गुरु पद का अहंकारः मैं शिक्षिका या शिक्षक हूं या मैं गुरु हूं। दूसरे को स्टूडेंट या शिष्य समझना भी मिथ्या अभिमान है। सदैव अपने को विद्यार्थी समझना है। सदैव सीखने की भावना रखनी है। हर एक व्यक्ति टीचर भी है, तो विद्यार्थी भी है, ऐसा बैलेंस कायम रखना है।
सेवाओं का अहंकारः कितनी भी विशाल या विहंग मार्ग की सेवा करें। सेवाओं की धूम मचा दें। देश-विदेश में छा जाएं। आपकी सेवाओं के खूब चर्चे हों। फिर भी ज़रा भी अभिमान ना आए। यह पक्का याद रहे कि करन करावनहार शिव बाबा परमात्मा है। हम सब निमित्त हैं। यह मैंने अकेले ही नहीं किया। सबके सहयोग से किया है।
योग का अहंकार: कुछ पुरुषार्थी योग की उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। योग की अच्छी अनुभूतियां भी कर लेते हैं। लम्बा समय योग-तपस्या में भी व्यतीत करते हैं, लेकिन कभी-कभी अपने श्रेष्ठ योगी जीवन का भी अभिमान आ जाता है। वैसे तो योगी सदैव अहंकार मुक्त होता है, लेकिन योग निरंतर नहीं रहता, इसलिए जब योग नहीं होता तो अपने योगी जीवन का भी अभिमान आ जाता है, इसके लिए निरंतर योगी बनने का प्रयास करें।
निरअहंकारिता को अपनाने के लिए कुछ बातें ध्यान में रखें
- रोजाना कुछ समय स्थूल सेवा, छोटी-छोटी सेवाओं में ज़रूर व्यतीत करें, जैसे – बर्तन मांजना, सफाई करना आदि-आदि ज़रूर करें।
- सदा बड़ों के सामने जी हां… का पाठ पक्का करें। कभी उनके सामने ज़िद्द ना करें, सामना ना करें।
- छोटे भाई व बहनों को बहुत प्यार से चलाएं। उन्हें पितृवत, मातृवत स्नेह देकर चलाए, तो बहुत दुआएं मिलेंगी।
- हरेक से कुछ सीखने की भावना रखें। दिल से रिगार्ड दें।
- हरेक की दिल से प्रशंसा करें।