इस सुखद परिवर्तन की मंगलमयी यात्रा करने के लिए हमें चलना होगा एक नई दिशा की ओर। चल तो रहे थे, लेकिन अगर कदमों की रफ्तार व दिशा अब भी वही ही रहेगी, तो मंजिल भी अवश्य वही ही रहेगी। अगर, मंजिल व लक्ष्य बदलने की ठान ली है, तो दिशा व रफ्तार भी बदलनी ही होगी।
उपभोग वृत्ति से योग वृत्ति की ओर
हमने लक्ष्य बनाया था भौतिक सुखों व साधनों को अर्जित करने का, तो जीवन-यात्रा में उपभोग वृत्ति ही मुख्य हो गई थी। अब जबकि लक्ष्य अतीन्द्रिय सुखों को अर्जित करने का है, तो भोग वृत्ति छूट कर सहयोग व योग वृत्ति जागृत हो गई है। कदम बढ़ चले हैं आत्मिक गुणों के संग्रह की ओर। मन के संकल्प दौड़ रहे थे लक्ष्यहीन आंधी की तरह, जिनका पता ही नहीं था कि इनका आरम्भ कहां से हुआ और अंत कहां जाकर होगा। लेकिन, जैसे ही मन ने देहभान को छोड़ आत्मिक भाव की ओर संकल्प रूपी कदम बढ़ाने आरम्भ किए, तो धीरे-धीरे ये कदम दिव्य उड़ान में परिवर्तित हो गए। इस उड़ान का आरम्भ आत्मिक अनुभूति से होता है और परमात्मा के अलौकिक स्वरूप पर टिक कर ही इस उड़ान को एक ठिकाना मिलता है।
जीवन-यात्रा में अर्जित क्या किया?
अन्तर्मुखी होकर, एकांत के क्षणों में, प्रकृति के निर्मल सानिध्य में तनिक स्वयं से एक प्रश्न पूछ लिया कीजिए कि इस जीवन-यात्रा को जब से आरम्भ किया, तब से अब तक हमने अर्जित क्या किया? शैशवास्था में चेहरे पर जो निश्चल शांत भाव व पवित्र मुस्कान थी वह कहीं कामुक भाव व कटु हंसी में तो परिवर्तित नहीं हो गई? चेहरे का निर्मल व आनन्दित भाव कहीं भौतिकवाद की चकाचौंध में चिंता व उदासी में तो नहीं बदल गया? क्या यही लक्ष्य था इस जीवन-यात्रा का? आओ लौट चलें, अब लौटना होगा, भौतिक साधनों की अंधी दौड़ से हटकर, साधना के सुंदर मार्ग की ओर। बाहरी जगत में, एक ओर भौतिकता के विशाल जंगल में स्वार्थ की काली आंधी बह रही है, अवगुणों रूपी कांटों की चुभन से दुख रूपी लहू बह रहा है, ईर्ष्या व नफरत के सर्प फन फैलाए बैठे हैं। दूसरी ओर, देहभान की तंग गलियों में सड़ांध और अंधकार है। देहभान में फंसा मानव प्रकृति द्वारा निर्मित देह, परिवार में मिले संबंधों, पदार्थ पर मेरा-मेरा कहकर हक जताता जा रहा है। सत्यता तो यह है कि जब आत्मा सृष्टि रंगमंच पर आई थी, तो उसके पास अपने मौलिक गुणों रूपी खजाने के अतिरिक्त कोई भी किचड़ा नहीं था। जब सर्वप्रथम प्राप्त शरीर भी अचानक आत्मा का साथ छोड़ देता है, तो अन्य किसी की देह पर या वस्तु पर मेरे-मेरे का हक रखना मूर्खता नहीं तो और क्या है? यही झूठा अधिकार मनुष्य के सर्व दुखों का यथार्थ कारण प्रतीत होता है। इन दुखों से मुक्ति चाहिए तो हमें लौटना होगा, साधना के सुंदर मार्ग की ओर जहां चारों ओर दिव्यता के सुगंधित पुष्प खिले हुए हैं। परोपकार व शुभ भावना की मंद-मंद शीतल हवा बह रही है। पवित्रता की ओजस्वी आभा जगत को प्रकाशित कर रही है।
परमात्मा मिलन से जागृत होती हैं सुषुप्त शक्तियां
जब पंछी पिंजरे में होता है, तो उसके पंख महत्वहीन ही होते हैं। पिंजरे से मुक्त होते ही उसके पंख, उसके लिए अनमोल साबित होते हैं। आत्मा भी जब तक देह-भान के पिंजरे में कैद है, तो आत्मिक गुणों के महत्व से अनजान ही रहती है। जैसे-जैसे देहभान रूपी पिंजरे की मेरे-मेरे रूपी सलाखें टूटती चली जाती हैं, तो आत्मा स्वयं में समाए हुए सुख-शांति व प्रेम इत्यादि गुणों से रू-ब-रू होने लगती है व अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो, परमात्म आकर्षण में उड़ान भरती चली जाती है। भौतिक जगत के इस नियम को तो सभी जानते हैं कि दो समान वस्तुएं एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हैं। देहभान युक्त व्यक्ति स्वयं को भौतिक देह समझने के कारण अन्यों की देह व वस्तुओं की तरफ आकर्षित होता जाता है। इसके विपरीत, आत्मिक भाव में स्थित व्यक्ति, स्वयं के आत्मिक गुणों व परमात्म स्वरूप की ओर वैसे ही आकर्षित होता है, जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखकर समुद्र की लहरें उछाल मारती हैं। परमज्योति शिव से मिलन मनाती आत्मा की, घूमिल पड़ी हुई शक्तियां फिर से जागृत होकर अन्य मनुष्यात्माओं का भी पथ प्रकाशित करना आरम्भ कर देती हैं। सहयोग का अन्तहीन शीतल झरना बहना आरम्भ हो जाता है। जिस प्रकार खिले हुए गुलाब को देखने मात्र से ही ताजगी का, बहते हुए झरने व कल-कल करती हुई नदी को देखने मात्र से ही शीतलता का व सूर्य को देखने मात्र से ही गर्माहट का आभास होने लगता है, वैसे ही परमात्मा के सत्यम् शिवम् सुन्दरम् स्वरूप को देखते-देखते आत्मा परमानन्द की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करती चली जाती है और परमात्म गुणों को स्वयं में समाहित कर मौलिक स्वरूप की ओर फिर से लौट चलती है।