मेंटल हेल्थ के लिए मदद लेने में पुरुष रहते हैं पीछे: समझें कारण और परिणाम

सच्चाई तो यह है कि मेंटल हेल्थ का कोई जेंडर नहीं होता। दर्द, अकेलापन, स्ट्रेस या डिप्रेशन किसी को भी हो सकता है, लेकिन मर्दों के लिए इसके बारे में बात करना अब भी एक टैबू है।

कई बार हम अपने आसपास देखते हैं कि जब किसी भी महिला को दुख, चिंता या डिप्रेशन जैसा कुछ महसूस होता है, तो वो अक्सर खुलकर अपनी बात कह देती है। वो दोस्तों से बात कर लेती है या अपने पार्टनर से। लेकिन जब यही चीज़ लड़कों के साथ होती है, तो वे ज़्यादातर चुप रहते हैं। ज़्यादातर पुरुष, परवरिश के कारण अक्सर हर बात मन में ही रखते हैं, मगर चेहरे पर मुस्कान लिए घूमते रहते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि बचपन से उन्हें सिखाया गया है कि मर्द रोते नहीं, मजबूत बनो, भावनाएं दिखाना कमजोरी है। यही सोच सबसे बड़ा ज़हर बन गई है, हमारे समाज में।

सच्चाई तो यह है कि मेंटल हेल्थ का कोई जेंडर नहीं होता। दर्द, अकेलापन, स्ट्रेस या डिप्रेशन किसी को भी हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए इसके बारे में बात करना अब भी एक टैबू है। अक्सर ये डर रहता है कि अगर अपनी तकलीफ के बारे में खुलकर बोले तो लोग ‘कमजोर’ कहेंगे। इसलिए बहुत से पुरुष मदद लेने से कतराते हैं और यही चुप्पी धीरे-धीरे उन्हें अंदर से खोखला कर देती है। नौकरी का प्रेशर, ज़िम्मेदारियां, रिलेशनशिप्स, फैमिली की उम्मीदें सब कुछ उनके सिर पर पहाड़ की तरह होता है, लेकिन बोलने का हक नहीं होता। लेकिन अब वक्त बदल रहा है। मेंटल हेल्थ की बात करना मर्दानगी नहीं घटाता, बल्कि ये दिखाता है कि आप अपने मन और जीवन को समझते हैं।

तो चलिए सोलवेदा हिंदी के इस आर्टिकल में हम इसके बारे में विस्तार से बात करते हैं।

आखिर पुरुष मदद लेने में क्यों रहते हैं पीछे? (Aakhir purush madad lene mein kyun rahte hain peeche?)

समाज की अपेक्षाएं

हमारे समाज में मर्दों से हमेशा ये उम्मीद की जाती है कि वो परिवार का सहारा बनें, मजबूत रहें, कभी न टूटें। पुरुषों का कोमल और संवेदनशील होना समाज को सही नहीं लगता। लेकिन सच्चाई तो यह है कि हर इंसान की एक भावनात्मक सीमा होती है। जब पुरुष परेशान होते हैं, तो वो सोचते हैं अगर मैंने किसी को बताया, तो लोग सोचेंगे मैं कमजोर हूं। यही सोच उन्हें मदद लेने से रोक देती है।

भावनाओं को दबाने की आदत

ज़्यादातर परिवारों में लड़कों को ‘मत रो’, ‘चुप रहो’, ‘मर्द बनो’ जैसी बातें कहकर भावनाएं दबाने की ट्रेनिंग दी जाती है। ये दबाव धीरे-धीरे अंदर ही अंदर जमा होता रहता है और एक दिन मानसिक रूप से थका देता है।

सपोर्ट सिस्टम की कमी

पुरुषों के पास दोस्त होते हैं, लेकिन ज़्यादातर बातचीत सिर्फ काम, क्रिकेट या मज़ाक तक सीमित रहती है। ‘तू ठीक है या नहीं’ ये कोई नहीं पूछता है। और जब कोई पूछता भी है, तो जवाब मिलता है कि सब बढ़िया है। असलियत कोई नहीं जानता, क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं लोग जज न करें।

थैरेपी को लेकर गलतफहमियां

बहुत से लोग अब भी मानते हैं कि मनोवैज्ञानिक के पास जाना मतलब पागल होना, जबकि हकीकत में, थैरेपी मानसिक थकान, तनाव, गुस्सा और और रिश्तों की दिक्कतों से निपटने का एक बहुत प्रभावी तरीका है। लेकिन ये टैबू पुरुषों को पीछे खींचता है।

मेंटल हेल्थ को लेकर मदद नहीं लेने के परिणाम (Mental Health ko lekar madad nahi lene ke parinam)

डिप्रेशन और एंग्जायटी का बढ़ना

जब भावनाएं दबती रहती हैं, तो धीरे-धीरे अंदर से टूटने लग जाती है। नींद कम हो जाती है, चिड़चिड़ापन बढ़ता है और ज़िंदगी बेरंग लगने लगती है। बहुत से पुरुष इसे थकान या स्ट्रेस मानकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जबकि ये डिप्रेशन की शुरुआत होती है।

रिश्तों पर असर

जब कोई अपनी भावनाएं नहीं साझा करता, तो उसके आसपास के लोग उसे अपने से दूर समझने लगते हैं। इससे पार्टनरशिप, दोस्ती और परिवारिक रिश्ते कमजोर पड़ने लगते हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य पर असर

तनाव सिर्फ मन को नहीं, शरीर को भी तोड़ता है। ब्लड प्रेशर, हार्ट प्रॉब्लम और नींद की गड़बड़, ये सब मानसिक दबाव का ही असर है।

इस आर्टिकल में हमने पुरुषों के मेंटल हेल्थ के बारे में बात की। यह जानकारी आपको कैसी लगी हमें कमेंट करके ज़रूर बताएं। साथ ही इसी तरह की और भी जानकारी के लिए पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी।

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