पुरुषार्थ की कथाएं

जीवन के चार उद्देश्य

“जीवन एक घर की तरह है। धर्म इसकी नींव है। अर्थ इसकी दीवारें हैं। काम इसकी सजावट है और मोक्ष इसकी छत है। अर्थात जीवन का असली रूप इन चारों से है।”

जैसा कि मैंने पहले भी आप को बताया है वेदों ने मनुष्य जीवन के चार उद्देश्य बताए हैं। वे हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

एक आदर्श दम्पति का जीवन धर्म में स्थित होना चाहिए। उन्हें आपस में अच्छे मानवीय संबंध रखने चाहिए। धन सम्पत्ति का प्रबंध करना, उसका धर्म के प्रचार के लिए उपयोग करना और अन्त में मोक्ष के उद्देश्य की ओर चलना चाहिए।

इस भौतिक संसार में रह कर हम अपने लक्ष्य को भूल जाते हैं, और केवल काम और अर्थ को ही अपना उद्देश्य मान बैठते हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि अगर हम इंद्रिय सुख तथा धन की प्राप्ति को ही जीवन का केन्द्र बना लेंगे, तो उस से हमारे जीवन का संतुलन बिगड़ जाएगा और हम दुख तथा निराशा के शिकार हो जाएँगे।

मैं इसे और विस्तार से समझाता हूँ। अगर आप बेईमानी से धन कमाओगे, तो वह धन आप को शान्ति नहीं देगा। अगर आप अवैध रिश्ते रखोगे, तो आप जिस सुख की की तलाश में हैं, उसे कभी नहीं पा सकोगे। यह सच है कि धन से आप का जीवन बदल जाता है, पर ज़रूरी नहीं उस से आप को सुख ही मिले। धन से मिला सुख आप को एक झूठे संतोष से शान्त तो करेगा, किन्तु बहुत थोड़े समय के लिए।

प्राचीन पुराणों में राजा ययाति की कहानी है, जिसने भरपूर लम्बा जीवन जिया। एक दिन जब उसने अपने सिर में एक सफ़ेद बाल देखा तो उसे चिंता लग गई कि अब सारे ऐशो आराम समाप्त हो जाएँगे। उसे भविष्य बड़ा निराशाजनक लगा। वह सोचने लगा काश! वह फिर से जवान हो सकता।

घबरा कर उस ने अपने बेटों से पूछा कि क्या कोई उस का बुढ़ापा ले कर बदले में अपनी जवानी दे सकता है? एक बेटे को छोड़ कर बाकी सब ने उसे अपनी जवानी देने से मना कर दिया और वह बेटा ऐसा था जिसे दुनिया से लगाव ही नहीं था और अपने भोगी पिता के लिए उसके मन में करुणा थी। उसने अपने पिता से कहा, “मैं खुशी से आप का बुढ़ापा लेने को तैयार हूँ।”

ऐसा ही हुआ और राजा ययाति फिर से भोग विलास का जीवन बिताने लगा। वह समय भी बड़ी जल्दी बीत गया और ययाति को फिर से बुढ़ापे ने आ घेरा, तब उसे समझ में आया कि सांसारिक इच्छाएँ और विषय वासनाएँ कभी सन्तुष्ट नहीं होतीं, बल्कि बढ़ती ही रहती हैं।

ऋषि भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि लालसाएँ कम या खत्म नहीं होतीं, उनको पूरा करते करते हम ही समाप्त हो जाते हैं। भर्तृहरि एक महान राजा थे। वे न्यायाधीश, दयालु तथा सबके साथ अच्छा व्यवहार करते थे। वे एक आदर्श राजा थे। एक दिन कुछ लोग उनके पास एक अमर फल ले कर आए और बोले, “राजन, अपने किस्म का यह एक ही फल है। यह हम आप के लिए लाए हैं, क्योंकि हम चाहते हैं कि आप जैसा आदर्श राजा हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया में रहे।

राजा ने फल स्वीकार कर लिया, जब वे खाने लगे, तो उन्होंने सोचा, “अपनी प्रिय पत्नी के बिना मेरा जीवन किस काम का ? यह अमर फल मैं अपनी रानी को देता हूँ, जिसे मैं अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करता हूँ, चाहता हूँ, वह हमेशा के लिए दुनिया में रहे।” यह सोच कर राजा ने वह फल अपनी पत्नी को दिया और कहा, “यह अमर फल है, प्रिय ! तुम इसे खा लो तो तुम्हारी मृत्यु कभी नहीं होगी।” रानी ने फल ले लिया। किस्मत की बात है, चोरी छिपे, रानी कोचवान से प्रेम करती थी। उसने सोचा “अगर मेरा प्रीतम कोचवान मर गया तो यह फल खाकर और अमर रह कर मैं क्या करूंगी?”

यह सोचकर उसने वह फल कोचवान को दे दिया। कोचवान एक वेश्या से प्रेम करता था, उसने वह फल वेश्या को दे दिया। एक क्षण के लिए वेश्या ने अंतर्मन में सोचा और उसके अन्तर में आवाज़ उठी, “मेरे इस जीवन का क्या फायदा है? मैं जितना ज़्यादा जीऊँगी, उतने ही अधिक पाप करूँगी और साथ ही साथ दूसरे लोगों को भी इस पापमय जीवन में खींचूँगी। अगर कोई अमरता का हकदार है, तो वे हैं हमारे न्यायकारी, महान राजा भर्तृहरि।” इस प्रकार अमर फल वापिस राजा भर्तृहरि के पास पहुँच गया।

राजा चकित रह गए कि वेश्या के पास यह फल कैसे पहुँच गया? उन्होंने जाँच पड़ताल करवाई तो पता लगा कि उनकी पत्नी उनके प्रति बेवफा थी। उन्होंने सोचा, “मैं ही मूर्ख हूँ, जिसने इस असार संसार और इस संसार के एक प्राणी पर भरोसा किया। इस से तो अच्छा है, मैं उस पर पूरा भरोसा करूँ, जो कभी साथ नहीं छोड़ता। अब मैं उसी एक की तलाश में निकलता हूँ जो सच्चा साथी है, न्यायकारी, सब से पवित्र और निर्मल है।”

अब उनका जीवन ऐसे बदल गया मानो, नया जन्म हुआ हो। अपना राज पाट त्याग कर वे एक जिज्ञासु, एक साधक का जीवन बिताने लगे।

एक दार्शनिक ने कहा है “जीवन एक घर की तरह है। धर्म इसकी नींव है। अर्थ इसकी दीवारें हैं। काम इसकी सजावट है और मोक्ष इसकी छत है। अर्थात जीवन का असली रूप इन चारों से है।” 

मैं आप से बिनती करता हूँ कि गृहस्थ आश्रम में रहें, किन्तु अपने जीवन के लक्ष्य को न भूलें। धर्म के आदर्श को नज़रअंदाज़ न करें। यह कभी न भूलें कि हमारी आखिरी मंज़िल मोक्ष है। इस जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति के लिए, अर्थ तथा काम उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए केवल साधन मात्र है।

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