कर्म का फल

मन रूपी खेत में श्रेष्ठ विचारों की फसल

कर्मों की उलझी गुत्थी को सुलझाने के लिए सुख का चिन्तन कर, दूसरों को सुख देकर, सुखद स्थिति निर्मित करें।

किसी-किसी को अक्सर कहते सुना है कि मेरा तो भाग्य ही खराब है, मुझे तो कोई प्यार नहीं करता, लोग मेरी हर बात को गलत कहते हैं, सारे दुख मेरे ही भाग्य में हैं आदि-आदि। ये बातें मनुष्य सिर्फ कर्मों की गुह्य गति को ना समझने के कारण कहता है। कई बार समझ भी लेते हैं लेकिन धारणा करके स्वरूप नहीं बनते हैं। अपने दुखों, परेशानियों का जिम्मेवार औरों को ठहराकर, अलबेले होकर जीना पसन्द करते हैं। देखा जाये तो दुख को सही रूप में पहचानना ही सुख है। जो मनुष्य आत्मायें दुख में भी सुख ढूँढ़ लेती हैं, वे ही परिस्थितियों से पार जाकर अंगद और महावीर कहलाती हैं।

जैसे किसी व्यसन की आदत हो जाने पर मनुष्य को व्यसन के बिना रहना मुश्किल लगता है, उसी प्रकार खुश रहने की आदत हमें खुशी की तरफ अग्रसर करती है और दुखी रहने की आदत दुख की ओर ले जाकर, राई को भी पहाड़ बना देती है।

कर्मों की उलझी गुत्थी को सुलझाने के लिए सुख का चिन्तन कर, दूसरों को सुख देकर, सुखद स्थिति निर्मित करें। दुख देने का विचार ना तो स्वभाव में लाकर संस्कार बनने दें, ना ही उसका चिन्तन करके दुखी हों। सुख दें, सुख लें। खुद पर ही निगरानी रखकर, खुद के ही पहरेदार बनें। उदाहरण के लिए, जिस तरह व जिस भाव से हम धन कमाते हैं, भविष्य परिणाम भी उसी तरह के आते हैं। उस परिणाम के हम खुद भी भुक्तभोगी बनते हैं और परिवार-जन भी हमारे साथ दुख में दुखी व सुख में सुखी होते हैं। तो हमें धन भी ‘नीति से कमाकर’ ‘रीति से’ सदुपयोग करना चाहिए।

हमारा मन बहुत बड़े खेत के समान है जिसमें दुख निर्मित करने वाले, खरपतवार रूपी व्यर्थ विचार भी होते हैं और उपयोगी पौधे समान सुख निर्मित करने वाले सदुपयोगी संकल्प भी पैदा होते हैं इसलिए मन रूपी खेत को परमात्मा छत्रछाया में, श्रीमत व याद रूपी खाद डालकर जोतना है, तब विकारों रूपी खरपतवार नहीं पनपेगी।

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