मैं ही क्यों

मैं ही क्यों?

जो हो रहा है, उसे जब हम ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं, तब हम नफरत, द्वेष और बैर जैसी बहुत-सी नकारात्मक भावनाओं से बच जाते हैं। फिर दुःख और निराशा हमारे जीवन में शेष नहीं रहते।

हमारे ऋषियों और संतों ने एक सत्य को बार-बार दोहराया है कि हमारे साथ जो भी घटना या दुर्घटना होती है, वह हमारे अपने कर्मों का फल होता है। अच्छा और बुरा भाग्य थाली में रखकर हमें परोसा नहीं जाता, हम उसे अपने कर्मों द्वारा अर्जित करते हैं। हर काम जो हम करते हैं, हर घटना जो हमारे साथ घटती है, हमारे पिछले जन्मों के कर्मों की प्रतिक्रिया होती है। इसीलिए जब दुर्भाग्य आता है तो हम उसे समझ नहीं पाते।

एक महिला थी, जिस ने अपने जीवन के कई वर्ष समाज-सेवा में अर्पित किए थे। वह प्रसन्नचित्त, मिलनसार, महिला थी। स्वभाव से ही परोपकारी थी। उस ने बहुत से ज़रूरतमंद लोगों को आराम और सुख प्रदान किया। अपने आराम और सुविधा की ओर कभी ध्यान नहीं दिया, बल्कि अपने सामर्थ से बढ़कर उस ने यथासंभव अधिक से अधिक लोगों का हित किया। अपने प्रेम और दया से लोगों का दिल जीत लिया।

एक दिन वह तेज़ गति से सैर कर रही थी, अचानक संतुलन बिगड़ जाने से वह गिर पड़ी, पर वह उठी और दर्द की परवाह किए बिना घूमती रही। कुछ दिन बाद वह फिर लड़खड़ाकर गिर पड़ी।

इस बार उसे चिंता हुई। वह डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने उसकी जाँच की और कहा कि उसे ‘Multiple Sclerosis’ हो गया है। उसने इस बीमारी का नाम पहले कभी नहीं सुना था, इसलिए आश्चर्यचकित होकर पूछा, “ये ‘Multiple Sclerosis’ क्या होता है?”

डॉक्टर ने बताया कि यह एक ऐसा रोग है, जिसमें नाड़ी-यंत्र धीर-धीरे कमज़ोर पड़ जाता है और आयु के साथ-साथ यह कमज़ोरी बढ़ती जाती है। कुछ समय बाद आप को चलने-फिरने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ेगी। हो सकता है कि आप को व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़े। आप को अपने आवश्यक दैनिक कार्यों के लिए दूसरों पर आश्रित होना पड़े।

यह सुनकर महिला अवाक् रह गई “मैं ही क्यों?” उसकी प्रतिक्रिया थी। “इतने सारे लोगों में से आखिर, मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? मेरे सभी मित्र स्वस्थ और सुखी जीवन जी रहे हैं, मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? क्या प्रभु न्यायशील हैं?”

एक युवक जिसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ, मुंबई में उसकी दवाओं की दुकान थी। वह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि एवं मेहनती था, उसकी दुकान बहुत अच्छी चल रही थी। जैसे-जैसे उसका व्यापार बढ़ता गया, उसका मन आध्यात्मिकता की ओर मुड़ता गया। दुकान को अपने एक अच्छे मित्र की देख-भाल में छोड़कर वह आध्यात्मिक साधना में अधिक से अधिक समय बिताने लगा। उसे मित्र पर पूरा-पूरा भरोसा था कि वह उसके हितों की रक्षा करेगा।

पर अफसोस! मित्र ने उसके साथ धोखा किया। कुछ ही वर्षों में सारी संपत्ति समाप्त हो गई और दीवाला निकलने की नौबत आ गई। कर्ज़ चुकाने के लिए उसे अपना सब कुछ बेचना पड़ा।

असफलता से अविचलित उस युवक ने विदेश जाकर भाग्य आज़माने का निश्चय किया। मित्रों की मदद से वह लॉस-ऐन्जल्स चला गया और नया काम शुरू किया। यहाँ भी उसका काम अच्छा चलने लगा। उसे इस बात का गर्व था कि वह हमेशा ईमानदार रहा है और उसका व्यवहार अन्य लोगों से श्रेष्ठ रहा है। जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ने लगी वह सपने देखने लगा कि वह जल्द ही घर वापिस जाएगा और अपनी साधना में पुनः लग जाएगा, जिसे उसे मजबूरियों में छोड़ना पड़ा था।

ऐसा नहीं होना था। एक दिन, दो नकाबपोश बंदूकधारी उसकी दुकान में आए और उसका धन और माल लूट कर ले गए। कुछ ही वर्षों में दूसरी बार उसे आर्थिक विनाश की चपत खानी पड़ी। उस अवसर पर उसने मुझे निम्नलिखित पत्र लिखा: ‘आपको यह पत्र लिखते हुए मैं खून के आँसू रो रहा हूँ। यह सब मेरे साथ क्यों घट रहा है? ऐसा दुर्भाग्य मेरे किन कर्मों का फल है? मैं दिन का आरंभ प्रार्थना से करता हूँ, हर प्रात: दुकान खोलते समय प्रभु का नाम लेता हूँ। सोते समय मेरे होठों पर प्रभु का नाम होता है। मैंने अपने जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं किया, कभी किसी का बुरा नहीं चाहा, परंतु मेरे साथ बार-बार धोखा होता है, बुरा होता है।

ज़रा सोचिए, जहाँ मेरी दुकान है, उस बाज़ार में लगभग सौ दुकानें और भी हैं। किसी का बाल भी बाँका न हुआ और मेरी दुकान लुट गई। प्रभु मेरे साथ ऐसा क्यों होने देते हैं? क्या वे न्यायशील हैं? क्या वे सचमुच न्यायशील हैं?”

जब नकारात्मक अनुभव मिलते हैं या कुछ अशुभ घटित होता है तो लोगों की सामान्यतः यही प्रतिक्रिया होती है कि मैं ही क्यों? ऐसा क्यों हुआ? ऐसे ही रोने-धोने के स्वर उभरते हैं। दुखी व्यक्ति की दृष्टि में वह शिकार होता है, भोला-भाला शिकार जब कि अपराधी कोई और है जो कि उनके दुःख के लिए ज़िम्मेदार है।

ऐसे दृष्टिकोण से सहानुभूति रखते हुए, हमें यह समझना चाहिए कि ऐसा दृष्टिकोण हमें आत्मचिन्तन, आत्म-विश्लेषण से वंचित कर देता है और अपने कर्मों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को हम समझ नहीं पाते। वस्तुतः अपनी बुराइयों के लिए दूसरों को दोषी ठहराकर हम अपनी स्थिति को और बिगाड़ लेते हैं या नई समस्याओं को जन्म देते हैं।

जो हो रहा है, उसे जब हम ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं, तब हम नफरत, द्वेष और बैर जैसी बहुत-सी नकारात्मक भावनाओं से बच जाते हैं। फिर दुःख और निराशा हमारे जीवन में शेष नहीं रहते।

कुछ वर्ष पहले, मुझे एक लड़की के विषय में बताया गया जो कि विश्वविद्यालय की एक मेधावी छात्रा थी। वह एम.बी.ए. कर रही थी और आशा की जाती थी कि वह अव्वल नम्बर आएगी। निश्चित था कि, अपने ही शहर की किसी बड़ी कंपनी में उसे उच्च वेतनधारी अधिकारी का स्थान प्राप्त हो जाएगा। उसका मन मस्तिष्क पूरी तरह अपने लक्ष्य पर लगा हुआ था और विवाह करने में उसे तनिक भी रुचि नहीं थी।

सभी माता-पिता की तरह, उसके माता-पिता को भी उसकी शादी की बड़ी चिन्ता थी। उनकी नज़र में एक सुंदर धनिक युवक था, जो अपने परिवार से मिलने के लिए अमेरिका से आया था। उन्हें लगता था कि उनकी मेधावी बेटी के लिए वह सुयोग्य है। उन्होंने अपनी बेटी को समझा-बुझाकर शादी के लिए मना लिया। जल्द ही धूमधाम से विवाह हो गया। कुछ दिनों के लिए नया जोड़ा हनीमून पर गया, सब ठीक-ठाक लगा। जल्दी ही पति अमेरिका चला गया। वीज़ा की औपचारिकताएँ पूरी करने के लिए लड़की को छ: महीने तक रुकना पड़ा, जब सब कुछ पूरा हो गया तो वह अमेरिका गई।

एयरपोर्ट पर उसे लेने के लिए उसका पति नहीं आया। जीवन में पहली बार विदेश जाने वाली लड़की की हालत सोचो क्या हुई होगी? सफर के साथियों की मदद से वह किसी तरह पति के घर पहुँची। डरते हुए और ज़ोर-ज़ोर से धड़कते दिल से उसने दरवाज़े पर दस्तक दी, पति ने दरवाज़ा तो खोला पर यह कहानी का सुखद अंत नहीं था।

कठोर स्वर में पति ने कहा, “देखो। मैं तुम्हें यहाँ अपने साथ नहीं रखना चाहता। “मैंने एक अमेरिकन लड़की से शादी की है, तुम चाहो, तो हमारे साथ रह सकती हो।”

लड़की पर मानों गाज गिर पड़ी। जीवन में अभी तक ऐसी परिस्थिति का सामना करना उसने नहीं सीखा था। उसे लगा कि उसने ठीक से सुना नहीं। इसका क्या अर्थ है? वह पहले से ही शादी शुदा था? फिर मेरा जीवन बर्बाद करने का, मेरा कैरियर और भविष्य बिगाड़ने का क्या प्रयोजन था? मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ-मैं तो शादी करना ही नहीं चाहती थी।

अगर यह लड़की पूछे कि क्या प्रभु न्यायशील हैं? तो आप उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

कुछ समय पूर्व मुझे एक महिला मिली, उसके पास सुनाने के लिए दुःखों भरी दास्तान थी। उसका एक ही पुत्र था, जिसे वह और उसका पति बहुत प्यार करते थे। बड़ा होकर वह सुशील युवक बना। वह कुशाग्र बुद्धि, सचरित्र और निर्मल स्वभाव का था। उसमें संस्कृति और सद्भावना के श्रेष्ठ लक्षण थे। वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। एक दिन वह अपने मित्र के साथ स्कूटर पर जा रहा था, ट्रक से टक्कर हुई। चलाने वाले मित्र को तो छोटी-मोटी चोटें आईं, पर वह युवक तत्काल मर गया।

जब माता-पिता के पास खबर पहुँची, तो माँ बेहोश हो गई, उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। पिता ने उस शहर जाने के लिए हवाई जहाज़ पकड़ा, जहाँ बेटा पढ़ता था क्योंकि उन्हें उसकी पहचान करके अंतिम संस्कार करने का पीड़ादायक काम करना था। जब वे हवाई जहाज़ में थे, उन्हें भयानक दिल का दौरा पड़ा। जब तक हवाई जहाज़ उतरा और डॉक्टर आया उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।

अश्रुभरी आँखों से उस महिला ने मुझसे कहा, “मैंने अपना बेटा खोया, जो मेरी आँखों का तारा था, पति खोया, जो मेरा सब कुछ था।

अब मुझे डर है कि मैं अपना मानसिक संतुलन न खो बैठूं। क्या प्रभु को हम पर दया नहीं आती? जिन आत्माओं को उसने रचा है क्या उनके प्रति उसे ज़रा भी सहानुभूति नहीं है? दुनिया में क्या कोई न्याय नहीं है? क्या प्रभु को न्यायशील कहा जा सकता है?”

मैं सिंगापुर में रहने वाली एक युवती को जानता हूँ, वह नेक और धर्म-परायण है, वह सिंगापुर के एक क्लब की सदस्या भी है। कुछ वर्ष पहले वह परिवार के साथ भारत आई, वे अनेक तीर्थ-स्थानों पर गए। कई धर्मात्माओं से, आध्यात्मिक गुरुओं से मिले जिनका वे आदर करते थे और उनसे आशीर्वाद लिया। भारत में उनकी यात्रा वस्तुतः एक तीर्थ-यात्रा थी। आध्यात्मिक भावों से विभोर होकर वे सिंगापुर लौटे।

कुछ दिन बाद उनके दफ्तर का परिसर आग में भस्म हो गया, महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ और मशीनें नष्ट हो गईं। महिला असमंजस में थी।

“यह हमारे साथ क्यों हुआ?”, रोते-रोते उसने कहा, “हम श्रद्धापूर्वक भारत गए, हमने संतों के आशीर्वाद लिया, प्रभु ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? क्या प्रभु न्यायशील हैं? क्या वे सचमुच न्यायशील हैं?”

क्रमशः

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