मैं कहां हूं

मैं कहां हूं?

'मैं' से तुम्हारा क्या मतलब होता है? जब तुम कहते हो 'मैं' तो उससे क्या मतलब होता है तुम्हारा? इस शब्द का अर्थ क्या होता है?

रमण अपने शिष्यों को एक विधि देते थे। उनके शिष्य पूछते थे: ‘मैं कौन हूं?’ तिब्बत में भी वे एक ऐसी ही विधि का उपयोग करते हैं जो रमण की विधि से भी बेहतर है। वे यह नहीं पूछते कि मैं कौन हूं। वे पूछते हैं कि ‘मैं कहां हूं?’ क्योंकि यह ‘कौन’ समस्या पैदा कर सकता है। जब तुम पूछते हो कि ‘मैं कौन हूं?’ तो तुम यह तो मान ही लेते हो कि मैं हूं, इतना ही जानना है कि मैं कौन हूं। यह तो तुमने पहले ही मान लिया कि मैं हूं; यह बात निर्विवाद है। यह तो स्वीकृत है कि मैं हूं; अब प्रश्न इतना ही है कि मैं कौन हूं। केवल प्रत्यभिज्ञा होनी है, सिर्फ चेहरा पहचानना है; लेकिन वह है–अपरिचित ही सही, पर वह है।

तिब्बती विधि रमण की विधि से बेहतर है। तिब्बती विधि कहती है कि मौन हो जाओ और खोजो कि मैं कहां हूं। अपने भीतर प्रवेश करो, एक-एक कोने-कातर में जाओ और पूछो: ‘मैं कहां हूं?’ तुम्हें ‘मैं’ कहीं नहीं मिलेगा। तुम उसे कहीं नहीं पाओगे। तुम उसे जितना ही खोजोगे उतना ही वह वहां नहीं होगा। और यह पूछते-पूछते कि ‘मैं कौन हूं?’ या कि ‘मैं कहां हूं?’ एक क्षण आता है जब तुम उस बिंदु पर होते हो जहां तुम तो होते हो, लेकिन कोई ‘मैं’ नहीं होता, जहां तुम बिना किसी केंद्र के होते हो। लेकिन यह तभी घटित होगा जब तुम्हारी अनुभूति हो कि विचार तुम्हारे नहीं हैं। यह ज्यादा गहन क्षेत्र है–यह ‘मैं-पन’।

हम इसे कभी अनुभव नहीं करते हैं। हम सतत ‘मैं-मैं’ करते रहते हैं। ‘मैं’ शब्द का निरंतर उपयोग होता रहता है; जो शब्द सर्वाधिक उपयोग किया जाता है वह ‘मैं’ है। लेकिन तुम्हें उसका अनुभव नहीं होता है। ‘मैं’ से तुम्हारा क्या मतलब होता है? जब तुम कहते हो ‘मैं’ तो उससे क्या मतलब होता है तुम्हारा? इस शब्द का अर्थ क्या होता है? उससे क्या व्यक्त होता है, क्या जाहिर होता है? मैं इशारा कर सकता हूं और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है। मैं अपने शरीर की तरफ इशारा कर सकता हूं और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है। लेकिन तब यह पूछा जा सकता है कि तुम्हारा मतलब हाथ से है, कि तुम्हारा मतलब पैर से है, कि तुम्हारा मतलब पेट से है? तब मुझे इनकार करना पड़ेगा; मुझे ‘नहीं’ कहना पड़ेगा। और इस तरह मुझे पूरे शरीर को ही इनकार करना होगा। तो फिर तुम्हारा क्या मतलब है जब तुम ‘मैं’ कहते हो? क्या तुम्हारा मतलब सिर से है? कहीं गहरे में जब भी तुम ‘मैं’ कहते हो, एक बहुत धुंधला-सा, अस्पष्ट-सा भाव होता है। और यह अस्पष्ट भाव तुम्हारे विचारों का है।

भाव में स्थित होकर, विचारों से पृथक होकर इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करो, इसे सीधे-सीधे देखो। और जैसे-जैसे तुम उसका साक्षात करते हो तुम पाते हो कि वह नहीं है। वह सिर्फ एक उपयोगी शब्द था, भाषागत प्रतीक था, आवश्यक था; लेकिन वह सत्य नहीं था। बुद्ध भी उसका उपयोग करते हैं, बुद्धत्व को उपलब्ध होने के बाद भी वे उसका उपयोग करते हैं। यह सिर्फ एक कामचलाऊ उपाय है। लेकिन जब बुद्ध ‘मैं’ कहते हैं तो उसका मतलब अहंकार नहीं होता, क्योंकि वहां कोई भी नहीं है।

जब तुम इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करोगे तो यह विलीन हो जाएगा। इस क्षण में तुम्हें भय पकड़ सकता है, तुम आतंकित हो सकते हो। और यह अनेक लोगों के साथ होता है कि जब वे इस विधि में गहरे उतरते हैं तो वे इतने भयभीत हो जाते हैं कि भाग खड़े होते हैं। तो यह स्मरण रहे: जब तुम अपने मैं-पन का साक्षात करोगे, उसको अनुभव करोगे, तो तुम ठीक उसी स्थिति में होगे जिस स्थिति में मृत्यु के समय होगे। ठीक उसी स्थिति में, क्योंकि ‘मैं’ विलीन हो रहा है। और तुम्हें लगेगा कि मेरी मृत्यु घटित हो रही है। तुम्हें डूबने जैसा भाव होगा कि मैं डूबता जा रहा हूं। और यदि तुम भयभीत हो गए तो तुम बाहर आ जाओगे और फिर विचारों को पकड़ लोगे; क्योंकि वे विचार सहयोगी होंगे। वे बादल वहां होंगे; तुम उनसे फिर चिपक जा सकते हो, और तुम्हारा भय जाता रहेगा।

पर स्मरण रहे, यह भय बहुत शुभ है। यह एक आशापूर्ण लक्षण है। यह भय बताता है कि तुम गहरे जा रहे हो। और मृत्यु गहनतम बिंदु है। यदि तुम मृत्यु में उतर सके तो तुम अमृत हो जाओगे। क्योंकि जो मृत्यु में प्रवेश कर जाता है, उसकी मृत्यु असंभव है। क्योंकि जो मृत्यु में उतर जाता है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। तब मृत्यु भी बाहर-बाहर है, परिधि पर है। मृत्यु कभी केंद्र पर नहीं है, वह सदा परिधि पर है। जब मैं-पन विदा होता है तो तुम ठीक मृत्यु जैसे ही हो जाते हो। पुराना गया और नए का आगमन हुआ।

यह चैतन्य, जो मैं-पन के जाने पर आता है, सर्वथा नया है, अछूता है, युवा है, कुंआरा है। पुराना बिलकुल नहीं बचा और पुराने ने इसे स्पर्श भी नहीं किया है। वह मैं-पन विलीन हो जाता है और तुम अपने अछूते कुंआरेपन में, अपनी संपूर्ण ताजगी में प्रकट होते हो। तुमने अस्तित्व का गहरे से गहरा तल छू लिया है।

ओशो: द बुक ऑफ सीक्रेट्स से उद्धृत

ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।

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