मेरी शरण आओ!

मेरी शरण आओ!

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “जिस जिस मार्ग से मानव मेरे पास आना चाहता, उसी मार्ग पर ही मैं उससे मिलता हूं, क्योंकि सारे के सारे मार्ग मेरे हैं।“

श्रीमद् भगवद् गीता में एक सुंदर श्लोक है। कुछ लोगों का यह मानना है, कि यह श्लोक भगवद् गीता का मुख्य श्लोक है। यह चौथे अध्याय का ग्यारहवाँ श्लोक है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “जिस भाव से लोग मेरी शरण लेते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! हर एक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुसरण करता है।“

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “जिस जिस मार्ग से मानव मेरे पास आना चाहता, उसी मार्ग पर ही मैं उससे मिलता हूं, क्योंकि सारे के सारे मार्ग मेरे हैं।“

सारे मार्ग प्रभु की ओर ले जाते हैं, फिर तकरार कैसी, विरोध कैसा? मैं एक मार्ग पर चल रहा हूँ। आप दूसरे मार्ग पर चल रहे हैं। और कुछ लोग तीसरे मार्ग पर चलते हैं। बेशक मार्ग अलग-अलग हैं, पर ये सारे मार्ग अंत में एक ही मंजिल, एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। लोग अलग अलग मार्ग से भिन्न भिन्न सत्संग में जाते हैं, उसी प्रकार अलग अलग मार्गों से होते हुए, अंत में मनुष्य को प्रभु को ही पाना है। इसलिए आपस में झगड़ा मत करो। हर इंसान अपनी राह पर चल रहा है। यदि उसके भीतर सच्चाई है तो वह प्रभु को ज़रूर पायेगा।

वैसे तो मार्ग कई हैं, पर तीन मुख्य मार्गों के बारे में श्री कृष्ण ने बताया है, ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, और भक्ति मार्ग।

ज्ञान मार्ग क्या है? कई लोगों को प्यास होती है कि वे प्रभु के बारे में जानकारी हासिल करें। प्रभु क्या है, उसके बारे में जानें। ऐसे जिज्ञासु ज्ञान मार्ग पर चलना चाहते हैं। ज्ञान मार्ग है विवेक और वैराग्य का मार्ग। जो ज्ञान मार्ग में चलने की कोशिश करता है, उसे पहला सबक मिलता है, कि यह संसार फानी है, अनित्य है, नाशवान है, केवल एक ब्रम्ह है नित्य, ब्रम्ह ही सत्य है। हम जो कुछ भी आँखों से देखते हैं, हाथों से छूते हैं, कानों से सुनते हैं, वह सब मिथ्या है। एक प्रभु ही सत्य है जो ज्ञान मार्ग पर चलता है, उसके लिये पहला साधन है, “यह भी नहीं, यह भी नहीं” इसे कहते हैं नेती! नेती! वह स्वयं ही पूछता है, “ब्रम्ह क्या है?” और उस प्रश्न के उत्तर में स्वयं ही कहता है,”यह भी नहीं, यह भी नहीं!” यह पेड़, यह दीवार, यह ज़मीन, यह जगह, यह शरीर, ब्रम्ह नहीं है। एक एक चीज़, एक एक रूप के लिये वह कहता है, “यह ब्रम्ह नहीं है।“

ज्ञान मार्ग पर चलकर कुछ लोगों ने प्रभु को पा लिया है, किन्तु यह मार्ग साधारण लोगों के लिये कठिन है। हममें से एक एक को कितना काम करना पड़ता है। एक भाई मुझे मिला। उसके हाथ में अठ्ठाईस कार्यों की लिस्ट थी। उसने कहा, ये सारे कार्य मुझे आज ही पूरे करने हैं। जिसे इतने सारे कार्य करने हो, वह ज्ञान मार्ग पर नहीं चल पायेगा। जब हम कार्य करते हैं, तो उस समय हम भूल जाते हैं, कि यह सारा संसार फानी है। जो ज्ञान मार्ग पर चलना चाहता है, उसके लिये ज़रूरी है, कि वह बार बार स्वयं को याद दिलाये, कि मैं यह शरीर नहीं हूँ। मैं मन और इंद्रियाँ भी नहीं हूँ। जो समझता है, मैं शरीर हूँ, वह कभी भी ज्ञान मार्ग पर नहीं चल पायेगा, और यह समझना, कि मैं शरीर नहीं हूँ, बड़ी ही कठिन बात है। अगर हममें से किसी के पैर में काँच चुभ जाये, खून बहने लगे, दर्द होने लगे तो इंसान भूल जायेगा कि वह शरीर नहीं है। जो ज्ञान मार्ग पर चलता है, वह कहेगा, “यह काँच काहे का, यह खून काहे का, यह दर्द कैसा? मैं तो ब्रम्ह हूँ।“ आज कल कितने ही लोग इस पवित्र मंत्र को उच्चारते हैं। “अहं ब्रहमास्मि।“

“मैं ब्रम्ह हूँ।“ पर इस मंत्र को हमें उच्चारने का कोई हक नहीं है। एक सतपुरुष ने कहा है, कि जो मनुष्य ब्रम्ह पद को प्राप्त कर लेता है, वह कभी नहीं कहेगा, मैं ब्रम्ह हूँ। जो कहता है, मैं ब्रम्ह हूँ, समझो उसने अभी ब्रम्ह पद हासिल नहीं किया है।

मनसूर जब मस्ती में आता था, पता नहीं किस मंजिल पर पहुँच जाता था। एक दिन मनसूर के शिष्य उससे कहते हैं, “हूजूर! आज आप बार बार कह रहे थे, अनालहक! अनालहक” अनालहक का मतलब है “मैं हक हूँ।“  “मैं ब्रम्ह हूँ।“ मनसूर ने कहा, “ये शब्द मैं कैसे कह सकता हूँ,? यह नामुमकिन है।“ शिष्य खामोश हो जाते हैं। दूसरे दिन फिर मनसूर समाधि में चला जाता है, और पुकारता है, अनालहक! जब मंसूर को सुध आती है, तब फिर शिष्य उससे कहते हैं, “हुजूर! आज भी आपके मुख से ये शब्द निकले अनालहक,अनालहक!” तब मंसूर अपने शिष्यों को तलवार देते हुए कहता है, “यदि किसी समय भी तुम मेरे मुख से ये शब्द सुनो तो मेरे गले पर तलवार की धार लगाकर देखना।“ तीसरे दिन वही हालत। उस के मुख से निकलता है “अनालहक! अनालहक!” शिष्य तलवार उठाकर मनसूर पर चलाते हैं, पर घोर आश्चर्य! तलवार हवा में घूम रही थी। मनसूर का शरीर मानो वहाँ था ही नहीं। शिष्य चकित हो जाते हैं। जब मंसूर की समाधि टूटती है, तब शिष्य उसे अपना अनुभव बताते हैं, मनसूर उनसे कहता है, “आपने देखा जिस समय अनालहक की आवाज़ आ रही थी, उस समय मैं वहाँ नहीं था। अगर मैं वहाँ पर होता तो मेरा सर धड़ से अलग हो जाता। उस समय मैं वहाँ पर था ही नहीं, सिर्फ हक था। और हक पुकार रहा था, “हक हूँ।“ सिर्फ ब्रम्ह ही हक है। वही पुकार सकता है, “अहं ब्रहमास्मि।“ ज्ञान मार्ग पर चलना हम साधारण लोगों के लिए कठिन है।

दूसरा मार्ग है कर्म मार्ग। उस मार्ग पर जो चलता है, वह कर्म करता है, पर कर्म फल की इच्छा को भुला देता है। वह इंसान कर्म करता है, पर वह नहीं कहता, कि मैंने काम किया है, वह स्वयं को प्रभु का साधन समझता है, वह हमेशा यही कहेगा, हर कार्य वह परम शक्ति करती है। इसलिए उसे काम के फल की चिंता नहीं होती। ऐसा इंसान हर हाल में, दुखमें, सुखमें, लाभ में, हानि में, प्रशंसा मार्ग है। मैं, मैं की भावना से से छूट जाता है।

शिवाजी महाराज ने मुगलों से कई लडाइयाँ लडीं और महाराष्ट्र के काफी हिस्से को मुगलों से आजाद करवाया।

शिवाजी के गुरु रामदास थे, और वे अपना सारा कार्य गुरु के चरणों में अर्पण करते थे। वे कहते थे, “मैं तो मात्र एक साधन हूँ। जो भी हो रहा है, वह तो मेरे गुरु समर्थ रामदास, ही कर रहे हैं।“

किन्तु एक बार शिवाजी ने एक नगर का निर्माण करवाया उस नगर को बनाने के लिए, उन्होंने हजारों लोगों को काम दिया। कुछ लोग रास्ते में, निंदा में, सेहत में, बीमारी में, और मौत के मुँह में भी उसे पुकारते हैं, “जो तुद भावै साईं भली कार, तो सदा सलामत निरंकार।“ उस इंसान का अहम् मिट जाता है। कर्म मार्ग भी कठिन मार्ग है। हम काम करते हैं, तो स्वाभाविक है, कि हमारे मन में फल की इच्छा उत्पन्न होती ही है। यदि मैं अस्पताल चलाता हूँ, या स्कूल चलाता हूँ, या फिर दुखियों, दरिद्रों की सेवा करता हूँ, तो लोग मेरी प्रशंसा करते हैं, बाहर से मैं भले ही ना दिखाऊँ, परन्तु मन के भीतर खुशी होती है, और यह विचार उत्पन्न होता है, कि मैं कितने शुभ कार्य कर रहा हूँ।

एक दिन शिवाजी अपने गुरु समर्थ रामदास को उस नगर में ले आए और उनसे कहा है, “गुरुदेव! इतने हज़ारों लोगों को रोज़गार मिला है, सब आप की कृपा है।“ संत रामदास शिवाजी के मन को भाँप लेते हैं। वे सोचते हैं, भले ही शिवाजी बाहर से अपना बड़प्पन नहीं दिखा रहा, पर उसके मन में “अहंकार” पनप रहा है। संत रामदास उनसे कहते हैं, “शिवाजी! तुम्हें मुबारक हो, जो तुमने हज़ारों लोगों को रोजी रोटी दी है।“

यह सुनकर मन ही मन शिवाजी खुश होते हैं, पर बाहर से वे संत रामदास के चरणों में सिर झुकाकर कहते हैं, “गुरुदेव! यह सब आपकी कृपा है। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ।“

संत रामदास उसके मन का हाल जान लेते हैं। संत रामदास उन्हें ऐसी जगह ले आते हैं, जहाँ पर चट्टानों को तोड़ा जा रहा था। संत रामदास ने शिवाजी से कहा, सामने जो बड़ी चट्टान दिखाई दे रही है, जरा मजदूरों से कहो, उसे तोड़ें। कई लोग शिवाजी का हुक़्म मानकर उस चट्टान को तोड़ने लगते हैं। जब चट्टान टूटती है तो सब देखते हैं चट्टान के बीच में एक गड्ढा था। उस गड्ढे में पानी भरा था, और उस में एक जीता जागता मेढ़क आँखें फाड़े बैठा था। तब संत रामदास ने शिवाजी की ओर देखकर कहा, “शिवा! क्या इस मेंढक की देखभाल भी तुम कर रहे हो।“ शिवाजी गुरु का इशारा समझ जाते हैं, और उनका सिर शर्म से झुक जाता है। वे स्वयं से कहते हैं, मैं अभिमान, और अज्ञानता के वश में आकर सोच रहा हूँ, हज़ारों लोगों को मैं रोज़ी रोटी दे रहा हूँ, पर हक़ीकत तो यह है, कि हर एक को रोज़ी रोटी देने वाला वह प्रभु है। मैं क्या हूँ? यह समझते ही उन्होंने गुरु के चरणों में गिरकर माफी मांगी है।

कर्म मार्ग पर चलने वाले को अभिमान से दूर रहना चाहिए। मैं मैं के विचार से दूर रहना चाहिए। इसलिए यह मार्ग भी कठिन है।

तीसरा मार्ग है भक्ति मार्ग। संत सतपुरुष कहते हैं, इस युग के लिए भक्ति मार्ग ही उचित है। जो भक्ति मार्ग पर चलना चाहता है, वह नाम स्मरण करे, प्रभु के गुण गाये, प्रभु को पुकारे, “ज्ञान दाता! मुझे ज्ञान दे, भक्ति दाता! मुझे भक्ति दे। अपने कमल कदमों के लिए प्यार दे। अपना दर्शन, दीदार दे। मुझे आर्शिवाद दो, कि मेरे काम काज कम हो जायें, ताकि मैं समय निकाल कर तुम्हारा नाम जप सकूँ, तुम्हारे गुण गा सकूँ, तुम्हारे चरण कमलों का ध्यान धर सकूँ। तुम्हारी छवि को निहारते हुए आँखों से नीर बहाता रहूँ। तुम्हें प्यास से पुकारता रहूँ। देखो, प्रभु! मेरी भीगी पलकें, सुन लो। मेरे टूटे दिल की सदा, आ जा प्रीतम प्यारे, अपना दरस दिखा जा। मेरे काम काज़ कम करो। और जो भी काम मैं करूँ, उसे तुम्हें अर्पण करूँ। भक्ति मार्ग है प्यार का मार्ग, प्यास, स्नेह, और इश्क का मार्ग।

इस युग का मार्ग है भक्ति मार्ग। गुरु ग्रंथ साहब है भक्ति का शास्त्र, नूरी ग्रंथ है भक्ति का शास्त्र। गुरु वाणी, संत वाणी, नूरी वाणी, सारे ग्रंथ भक्ति की शिक्षा से भरे हैं।

भक्ति की शुरुआत कैसे शुरू हुई, भक्ति दौर ऊपजे उन शब्दों का क्या अर्थ है? भक्ति की शुरुआत दक्षिण भारत से हुई। दक्षिण भारत में जिसने इस आंदोलन को शुरु किया, वे थे संत सतपुरुष, जिन्हें “आलवर” कहते हैं। उन दिनों भारत में ज्ञान की चर्चा होती थी। पर जो लोग ज्ञान की बातें करते थे, उनके जीवन में दिव्य ज्योति का प्रकाश नहीं था। उन का ज्ञान शब्दों का ज्ञान था। वे सिर्फ शास्त्रों से बातें पढ़कर उसका वर्णन करते थे। उनके पास सच्चा ज्ञान नहीं था। ऐसे समय में ये संत पृथ्वी पर आये, जिन्हें “आलवर” कहने लगे। “आलवर” शब्द का अर्थ है, जो अंतर की गहराई में डूब जाये।

“One who dives deep.”

हममें से हर एक के भीतर गहरा सागर है। उस सागर में कीमती मोती छिपे हैं, जिसमें ज्योति चमक रही है। आलवर अर्थात जो सागर की गहराई में डुबकी लगाता है, और सागर तल से मोती चुन लाता है।

हम भीतर की गहराई में नहीं जाते। बाहर भटक रहे हैं। देखिए! हमारा धर्म किन बातों पर टिका है? हम मंदिर जाते हैं, वहाँ नारियल चढ़ाते हैं, तीर्थ स्थानों पर जाते हैं, और वहाँ पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। जहाँ मछलियाँ भी स्नान कर रही हैं। यदि नदियों के पानी से कोई चमत्कार होता, तो हर मछली संत बन चुकी होती। हम बाहर भटक रहे हैं। इस लिए हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होता। हममें से हर एक के भीतर गहराई है। हम उस गहराई में नहीं उतरते हम बाहरमुखी होकर रह गये हैं। इसलिए हम बहुमुखी हो गए हैं। एक ही इंसान कभी किसी mood  में रहता है, तो कभी किसी अलग mood में होता है। गुरु अर्जुन देवजी श्री सुखमनी साहब इस हालत का वर्णन करते हुए कहते हैं, “कबहूँ महा क्रोध विकराल, कबहूँ सब्र की होत खाल।“ वही मनुष्य कभी कितना मीठा बोलता है, और कहता है मैं सबके चरणों की धूल हूँ। वही मनुष्य जब क्रोधित होता है, तो उसका मुख राक्षस जैसा हो जाता है। हमें अचरज होता है कि अचानक इस व्यक्ति को क्या हो गया। यह नम्रता की मूर्ति यकायक इतने क्रोध में क्यों आ गया? कारण यह है, कि हर इंसान के भीतर कई रूप हैं। कभी हमारा एक रूप दिखता है, तो कभी दूसरा। हम बहुमुखी हैं! पर जो मन की गहराइयों में ऊतरता है, उसका सिर्फ एक रूप होता है, और वह भाग्यवान इंसान हर समय अपने मेहबूब को देखता है। उसका मुख हमेशा चमकता रहता है। वह हमेशा मुस्कुराता रहता है! उसके भीतर से एक ही पुकार निकलती है, “मुझे तो चाहत है एक तेरी! एक तेरी ही तेरी! एक तेरी ही तेरी!”

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