पाप कर्मों के दुखों से कैसे बचें?

पाप कर्मों के दुखों से कैसे बचें ?

सन्त कबीर जी ने कहा है, पहले बनी प्रलब्ध, फिर मिला शरीर अर्थात् पिछले जन्म के कर्मों के फल (प्रलब्ध) अनुसार ही शरीर (रोगी-निरोगी) मिलता है।

यह तो सर्वविदित है कि भूतकाल में किए गए पाप कर्मों की सजा मनुष्यात्मा, मन व शरीर दोनों के माध्यम से भोगती है। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ऐसे कर्म हो सकते हैं, जो भूतकाल में किए गए पाप कर्मों की सजा को नष्ट कर सके? कर्म का नियम अटल है। कर्म सुखोत्पादक और दुखोत्पादक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। 

श्रेष्ठ कर्मों में वृद्धि

प्रत्येक श्रेष्ठ कर्म वर्तमान तथा भविष्य, दोनों कालों में खुशी प्रदान करता है। इसलिए श्रेष्ठ कर्म करते-करते हम अपनी खुशियों को इतना बढ़ा सकते हैं कि भूतकाल के पाप कर्मों की सजा की महसूसता को नष्ट किया जा सके। महात्मा बुद्ध ने भी कहा है कि हमारा वर्तमान, भूतकाल के किए गए अच्छे व बुरे कर्मों का विशुद्ध परिणाम है। यदि हम निरन्तर हर रोज ब्रह्ममुहूर्त में ईश्वर-स्मरण करें और दिन भर श्रेष्ठ कर्म करें तो श्रेष्ठ कर्म करने के हमारे संस्कार पक्के हो सकते हैं। भूतकाल में किए गए पापों के दुखों पर वे भारी पड़ कर हमें सदाकाल के लिए खुशी प्रदान कर सकते हैं।

योगाग्नि से पापों को भस्म करना

द्वापर युग से ज्यों ही पाप कर्म शुरू हुए, मानव ने पापों को नष्ट करने की कुछ न कुछ विधियाँ रची। इन विधियों में मुख्य रूप से नदी में स्नान, तीर्थ-यात्राएँ, हवन, यज्ञ, सत्संग, दान-पुण्य, प्रयश्चित आदि हैं। परन्तु बुद्धि कहती है कि ऐसा करने से कुछ श्रेष्ठ कर्म जमा तो हो सकते हैं लेकिन पूर्व के पाप नष्ट कैसे हो सकते हैं? कुछ लोग कहते हैं कि यह तो विश्वास की बात है परन्तु विश्वास भी ज्ञान पर आधारित होना चाहिए। जैसे गंगा के पानी से शरीर तो साफ हो सकता है परन्तु मन व आत्मा का मैल नहीं धुल सकता। भक्ति मार्ग में पापों को भस्म करने के लिए योग-अग्नि का जिक्र भी है परन्तु आत्मा-परमात्मा का स्पष्ट परिचय न होने के कारण प्रभावी योग-अग्नि प्रज्वलित नहीं हो पाती। शिव परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से स्वयं अपना व आत्मा तथा इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय देकर राजयोग रूपी अग्नि से भूतकाल के पापों को भस्म करने की अचूक विधि सिखाई है। निरन्तर ज्वालामुखी योग के अभ्यास, तपस्या, साधना आदि से पाप शीघ्र भस्म होते जाते हैं। इससे आत्मा का सुख, शान्ति, खुशी, प्रेम आदि का पारा बढ़ता जाता है तथा आत्मा हल्की होती जाती है।

मैं और मेरे का यथार्थ ज्ञान

किसी सामान्य व्यक्ति से यदि पूछा जाए कि आप कौन हैं तो वह झट अपने शरीर तथा पद का ही नाम बतायेगा। भूला बैठा है कि वह अजर, अमर, अविनाशी तथा चैतन्य आत्मा है जिसकी स्मृति मात्र से उसको खुशी व सुख की महसूसता हो सकती है।

दूसरा, यदि पूछा जाए कि इस दुनिया में आपका कौन है? तो शरीर, शरीर के सम्बन्धी, धन-सम्पत्ति आदि ही याद आते हैं। ये सब अस्थाई हैं। ये सब मनुष्य के पास प्रकृति की अमानत के रूप में होते हैं। इस बात की निरन्तर अनुभूति तथा स्मृति व्यक्ति के मोहजाल को काट कर खुशी प्रदान कर सकती है। वस्तुतः उसका कुछ है तो वह है आत्मा के गुण और परमपिता परमात्मा शिव का प्यार। शिव पिता परमात्मा की याद से आत्मा में उन गुण और शक्तियों के संस्कार भर जाते हैं जो इस जन्म में ही नहीं बल्कि भविष्य के अनेक जन्मों तक साथ रहते हैं तथा बेहद का सुख, शान्ति, खुशी आदि प्रदान करते रहते हैं। श्रीमद् भगवद्गीता में भी कहा गया है, ‘नष्टोमोटा स्मृतिर्लब्धा’। यदि आत्मा स्वयं के दिव्य ज्योति बिन्दु स्वरूप में टिक कर इस स्मृति में स्थित रहे कि ‘मेरा तो एक शिवबाबा दूसरा न कोई’ तो इस तप से उसके अनेक जन्मों के पाप भस्म होकर वह जन्म-जन्मान्तर के लिए खुशियों के झूले में झूल सकती है।

लौकिक जज और पारलौकिक जज

जो व्यक्ति शिव पिता परमात्मा को अपने इस जीवन के पाप कर्मों का सच्चा ब्योरा देकर उनसे क्षमा मांगता है तथा भविष्य में ऐसे कर्म पुनः न करने की प्रतीज्ञा करता है तो उसकी आधी सजा माफ हो सकती है। कैसे? जैसे लौकिक में जज बाप अपने अपराधी पुत्र द्वारा, अपनी गलती स्वीकारने, हृदय से क्षमा मांगने, अपने आचरण में सुधार करने तथा फिर से ऐसी गलती न करने की बार-बार प्रतिज्ञा करने पर उसे कम से कम सजा दे सकता है। क्योंकि, सजा का उद्देश्य अपराधी को सुधारना ही होता है। जब लौकिक जज बाप ऐसे कर सकता है तो पारलौकिक जज परमात्मा पिता आधी सजा क्यों नहीं माफ कर सकता? बाकी बची हुई आधी सजा को उपरोक्त योगाग्नि से भस्म किया जा सकता है। इससे आत्मा पापों के दुखों से मुक्त हो सकती है।

बना-बनाया खेल

अनेक बार ऐसा महसूस होता है कि हम करना कुछ चाहते हैं परन्तु करते कुछ और हैं। मान लीजिए, सम्पत्ति आदि के झगड़े में पुत्र अपने पिता या भाई की हत्या कर देता है। फिर जेल जाकर कह उठता है कि वह ऐसा करना तो नहीं चाहता था परन्तु पता नहीं कैसे हो गया। इसी प्रकार, देश-प्रेम से भरपूर एक शिक्षित युवा फौज में भर्ती होकर देश-सेवा करना चाहता है परन्तु उसका कद कुछ कम होने के कारण वह भर्ती नहीं हो पाता अर्थात् वह मनचाहा कार्य नहीं कर पाता। इन सब घटनाओं से समझ में आता है कि इस सृष्टि रूपी नाटक में हम सभी पूर्व निर्धारित पार्ट बजाने के लिए बाध्य हैं। यह पार्ट भूतकाल में किए गए कर्मों व संस्कारों अनुसार ही मिलता है। सन्त कबीर जी ने कहा है, पहले बनी प्रलब्ध, फिर मिला शरीर अर्थात् पिछले जन्म के कर्मों के फल (प्रलब्ध) अनुसार ही शरीर (रोगी-निरोगी) मिलता है। इसलिए हमें वर्तमान में जो भी पार्ट मिला है, न्यायोचित यही होगा कि हम उसको अपने ही भूतकाल के कर्मों का फल समझ कर खुशी-खुशी पूर्ण करें, न कि दुखी होकर। मानव सृष्टि रूपी नाटक का ज्ञान समझ में आने से खुशी बढ़ जाती है तथा दुखों की महसूसता कम हो जाती है।

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